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________________ २६ पञ्चसंग्रह श्रुताशानका स्वरूप आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि-उवएसा । तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाण त्ति णं विति ॥११॥ चौरशास्त्र, हिंसाशास्त्र तथा महाभारत, रामायण आदिके तुच्छ और परमार्थ-शून्य होनेसे साधन करनेके अयोग्य उपदेशोंको ऋषिगण श्रुताज्ञान कहते हैं ॥११॥ कुअवधि या विभंगशानका स्वरूप विवरीयओहिणाणं खओवसमियं च कम्मबीजं च । वेभंगो ति य वुच्चइ समत्तणाणीहि समयम्हि ॥१२०॥ जो क्षायोपशभिक अवधिज्ञान मिथ्यात्वसे संयुक्त होनेके कारण विपरीत स्वरूप है, और नवीन कर्मका बीज है, उसे समाप्त अर्थात् जिनका ज्ञान सम्पूर्णताको प्राप्त है ऐसे ज्ञानियोंके द्वारा उपदिष्ट आगममें कुअवधि या विभंगज्ञान कहा है ॥१२०।। आभिनिबोधिक या मतिज्ञानका स्वरूप- . अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदि-इंदियजं । बहुउग्गहाइणा खलु कयछत्तीसा तिसयभेयं ॥१२१॥ अनिन्द्रिय अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी सहायतासे उत्पन्न होनेवाले, अभिमुख और नियमित पदार्थके बोधको आभिनिवोधिक ज्ञान कहते हैं। उसके बहु आदिक बारह प्रकारके पदार्थों की और अवग्रह आदिको अपेक्षा तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥१२१।। श्रुतज्ञानका स्वरूप 'अत्थाओ अत्यंतरउवलंभे तं भणंति सुयणाणं । आहिणियोहियपुव्वं णियमेण य सद्दयं मूलं ॥१२२।। __ मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थके अवलम्बनसे तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थका जो उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान नियमसे आभिनिबोधिकज्ञान-पूर्वक होता है । ( इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य, इस प्रकार दो भेद हैं ) । उनमें अक्षरात्मक श्रुतज्ञानका मूल कारण शब्द-समूह है ।।१२२॥ अवधिशानका स्वरूप 5अवहीयदि त्ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समए । भव-गुणपञ्चयविहियं तमोहिणाण त्ति नणं विति" ॥१२३॥ 1. सं० पञ्चसं० १, २३१ उत्तरार्ध । 2. १, २३२ । ३. १, २१४ । 4. १, २१७-२१८ । 5. १, २२०-२२१ । १. ध० भा० १ पृ० ३५८, गा० १८० । गो० जी० ३०३ । २. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८१ । गो० जी० ३०४ । ३. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८२ । गो० जी० ३०५, परं तत्रोत्तरार्धे अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं इति पाठः । ४. ध० भा० १ पृ० ३५६, गा० १८३ । गो० जी० ३१४ । ५. ध० भा० १ ० ३५६, गा० १८४ । गो० जी० ३६५ । ॐ द -णत्तणं ।।द -णाणेत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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