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________________ जीवसमास जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमासे युक्त अपने विषयभूत पदार्थको जाने, उसे अवधिज्ञान कहते हैं, सीमासे युक्त जाननेके कारण परमागममें इसे सीमाज्ञान कहा है । यह भवप्रत्यय और गुणप्रत्ययके द्वारा उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं ||१२३ ॥ अवधिज्ञानके भेदोंका वर्णन 'अणुगो अणाणुगामी X तेत्तियमेत्तो य अप्पबहुगोऽयं । वह कमेण हीयइ ओही जाणाहि छन्भेओ ||१२४|| अनुगामी, अननुगामी, तावन्मात्र अर्थात् अवस्थित, अल्प-बहुत अर्थात् अनवस्थित, क्रमसे बढ़नेवाला अर्थात् वर्द्धमान और क्रमसे हीन होनेवाला अर्थात् हीयमान, इस प्रकार अवधिज्ञान छह भेदरूप जानना चाहिए ॥ १२४ ॥ मन:पर्ययज्ञानका स्वरूप 'चिंतियमचिंतियं* वा अर्द्ध चिंतिय अणेय भेयगयं । मणपञ्जव त्तिणाणं जं जाणइ तं तु परलोए ॥१२५॥ | जो चिन्तित अर्थात् भूतकाल में विचारित, अचिन्तित अर्थात् अतीत में अविचारित किन्तु भविष्य में विचार्यमाण, और अर्धचिन्तित इत्यादि अनेक भेदरूप दूसरेके मनमें अवस्थित पदार्थको नरलोक अर्थात् पैंतालीस लाख योजनरूप मनुष्यक्षेत्र में जानता है, वह मन:पर्ययज्ञान कहलाता है ।। १२५ ।। केवलज्ञानका स्वरूप पुणं तु समग्गं केवलमसपत्त । सव्वभावगयं । लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेयच्वं ॥ १२६ ॥ जो जीवद्रव्यके शक्ति-गत ज्ञानके सर्व अविभागप्रतिच्छेदोंके व्यक्त हो जानेसे सम्पूर्ण है, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मके सर्वथा क्षय हो जानेसे अप्रतिहतशक्ति है, अतएव समग्र है, जो केवल अर्थात् इन्द्रिय और मनकी सहायता से रहित है, असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षसे रहित है, युगपत् सर्व भावोंको जाननेवाला है, लोक और अलोकमें अज्ञानरूप तिमिर (अन्धकार) से रहित है, अर्थात् सर्व-व्यापक और सर्व-ज्ञायक है, उसे केवलज्ञान जानना चाहिए ॥१२६|| इस प्रकार ज्ञानमार्गणाका वर्णन समाप्त हुआ । संयममार्गणा, द्रव्यसंयमका स्वरूप २७ Jain Education International 'वय समिदि - कसायाणं दंडाणं इंदियाण पंचन्हं । धारण- पालण - णिग्गह- चाय-जओ संजमो भणिओ || १२७|| अहिंसादि पाँच महाव्रतोंका धारण करना, ईयदि पाँच समितियोंका पालन करना, क्रोधादि चारों कषायोंका निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पाँचों इन्द्रियोंका जीतना सो द्रव्यसंयम कहा गया है || १२७|| 1. सं० पञ्चसं० १, २२२ । १.१, २२७ - २२८ । ३.१, २२६ । 4. १,२३८ । १. ६० भा० १ पृ० ३६०, ग० १८५ । गो० जी० ४३७ । २. ध० भा० १ पृ० ३६०, गा० १८६ | गो० जी० ४५६ । ३. ६० भा० १ पृ० १४५, गा० ६२ । गो० जी० ४६४ । x द च - णाणुगामी य | अत्थं चिंता । बवन्न, द वण्ण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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