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पञ्चसंग्रह भावसंयमका स्वरूप
सगवण्ण जीवहिंसा अट्ठावीसिंदियत्थदोसा य ।
तेहिंतो जो विरओ भावो सो संजमो भणिओ ॥१२८॥ पहले जीवसमासोंमें जो सत्तावन प्रकारके जीव बता आये हैं, उनकी हिंसासे उपरत होना, तथा अट्ठाईस प्रकारके इन्द्रिय-विषयोंके दोषोंसे विरत होना, सो भावसंयम कहा गया है ॥१२८।। सामायिकसंयमका स्वरूप
'संगहियसयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं ।
जीवो समुव्वहंतो सामाइयसंजदो होइ ॥१२६॥ जिसमें सकल संयम संगृहीत हैं, ऐसे सर्व सावद्यके त्यागरूप एकमात्र अनुत्तर एवं दुरवगम्य अभेद-संयमको धारण करना सो सामायिकसंयम है, और उसे धारण करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है ।।११६॥ छेदोपस्थापनासंयमका स्वरूप
'छेत्तण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं ।
पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावगो जीवो ॥१३०॥ सावध व्यापाररूप पुरानी पर्यायको छेद कर अहिंसादि पाँच प्रकारके यमरूप धर्ममें अपनी आत्माको स्थापित करना छेदोपस्थापनासंयम है, और उसका धारक जीव छेदोपस्थापकसंयत कहलाता है ॥१३०॥ परिहारविशुद्धिसंयमका स्वरूप
पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सया वि जो हु सावजं ।
पंचजमेयजमो वा परिहारयसंजदो साहूँ ॥१३॥ पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर सदा ही सर्व सावद्य योगका परिहार करना तथा पाँच यमरूप भेद-संयम (छेदोपस्थापना ) को, अथवा एक यमरूप अभेद-संयम ( सामायिक ) को धारण करना परिहार विशुद्धि संयम है, और उसका धारक साधु परिहारविशुद्धिसंयत कहलाता है ।।१३।। सूक्ष्मसाम्परायसंयमका स्वरूप--
'अणुलोहं वेयंतो जीओ उवसामगो व खवगो वा ।
सो सुहुमसंपराओ जहखाएणूणओ किंचि ॥१३२॥ मोहकर्मका उपशमन या क्षपण करते हुए सूक्ष्म लोभका वेदन करना सूक्ष्मसाम्परायसंयम है और उसका धारक सूक्ष्मसाम्परायसंयत कहलाता है। यह संयम यथाख्यातसंयमसे कुछ ही कम होता है । ( क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायसंयम दशवें गुणस्थानमें होता है और यथाख्यातसंयम ग्यारहवें गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है ) ॥१३२॥
1. सं० पञ्चसं० १, २३६ । 2. १, २४० । 3. १, २४१ । 4. १,२४२ । १. ध० भा० १ पृ० ३७२, गा० १८७ । गो० जी० ४६६ । २. ध. भा. १ पृ. ३७२,
गा १८८ । गो० जी० ४७० । ३. ध० भा० १ पृ. ३७२, गा० १८१ । गो० जी० ४७१ ।
४. ध० भा० १ पृ० ३७३, गा० १६० । गो० जी० ४७३ । ॐद -विरउ । द ब -संजमो ।
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