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________________ ३५२ पञ्चसंग्रह इसी प्रकार उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि भाषापर्याप्तिके पूर्ण होनेपर अट्ठाईसप्रकृतिक उदयस्थानमें दुःस्वर प्रकृतिके मिलानेपर उनतीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस उदयस्थानका जघन्यकाल कुछ कम दश हजार वर्ष है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। इस प्रकार नरकगतिमें नामकर्मके उदयस्थानसम्बन्धी सर्वविकल्प पाँच ही होते हैं ॥१०५-१०६।। नरकगतिमें उदयस्थानके भंग ५ होते हैं। अब तिर्यग्गतिमें नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं इगिवीसं चउवीसं एत्तो इगितीसयं ति एगधियं । णव चेव उदयठाणा तिरियगईसंजुया होंति ॥१०७।। २१।२४१२५।२६।२७।२८।२६॥३०॥३॥ अथ तिर्यग्गतौ नामप्रकृत्युदयस्थानानि गाथापञ्चाशदाऽऽह-['इगिवीतं चउवीसं इत्यादि।] एकविंशतिकं २१ चतुर्विंशतिकं २४ इतःपरं एकत्रिंशत्पर्यन्तं एकैकाधिकं पञ्चविंशतिकं २५ पडविंशतिकं २६ सप्तविंशतिकं २७ अष्टाविंशतिकं २८ एकोनत्रिंशत्कं २६ त्रिंशत्कं २० यावदेकत्रिंशत्कं ३१ चेति नव नामकर्मणः प्रकृत्युदयस्थानानि तिर्यग्गतिसंयुक्तानि तिर्यग्गती भवन्ति ॥१०७॥ २१२४.२५।२६।२७।२८।२६।३०३३ । इक्कीसप्रकृतिक, चौबीसप्रकृतिक और इससे आगे एक-एक अधिक करते हुए इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान तक नौ उदयस्थान तिर्यरगति-संयुक्त होते हैं ।।१०७॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है २१, २४, २५, २६, ३७, २८, २९, ३०, । पंचेवा उदयठाणा सामण्णेइंदियस्स बोहव्वा। इगि चउ पण छ सत्त य अधिया वीसा य णायव्वा ॥१०८।। सामण्णेइंदियरस २१॥२४॥२५।२६।२७ एकविंशतिकं २१ चतुर्वि शतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ पड्विंशतिकं २६ सप्तविंशतिकमिति नामप्रकृत्युदयस्थानानि सामान्यैकेन्द्रियाणां जीवानां मध्ये एकस्मिन् एकेन्द्रियजीवे पन्चेव बोधव्यानि ॥१०॥ २१॥२४॥२५।२६।२७ ।। सामान्य एकेन्द्रिय जीवके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक पाँच उदयस्थान जानना चाहिए ॥१०८॥ सामान्य एकेन्द्रिय जीवके २१, २४, २५, २६, २७ प्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं। आयाउञ्जोयाणं अणुदय एइंदियस्स ठाणाणि । सत्तावीसेण विणा सेसाणि हवंति चत्तारि ॥१०६।। २१।२४।२५।२६।। आतपोद्योतयोरनुदयैकेन्द्रियस्यातपोद्योतोदयरहितसामान्य केन्द्रियजीवस्य सप्तविंशतिकं विना एकविंशतिक-चतुर्विशतिक-पञ्चविंशतिक-षड्वंशतिकानि चत्वारि नामोदयस्थानानि भवन्ति ॥१०॥ २१२१२५२६ । 1. सं० पञ्चसं० ५, १२४ । 2. ५, १२५-१२६। 3. ५, १२७ । ब पंचेव य। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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