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________________ सप्ततिका आतप और उद्योतके उदयसे रहित एकेन्द्रियजीवके सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थानके विना शेष चार उदयस्थान होते हैं ॥१०॥ उनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २४, २५, २६ । आयावुजोयाणं अणुदय एइंदियस्स इगिवीसं । तिरियदुग तेय कम्मं अगुरुगलहुगं च वण्णचदुं ॥११०॥ जस-बायर-पजत्ता तिण्हं जुयलाणमिक्कयर णिमिणं च । थिर-अथिर-सुहासुह-दुब्भगाणादेज्जं च थावरयं ॥११॥ एइंदियस्स जाई विग्गहगइ पंचेव भंगा य । कालो जहण्ण इयरो इक्कं दो तिण्णि समयाणि ॥११२॥ "एस्थ जस कित्तिउदए सुहुम-अपजत्तया ण होति, तेग एगो भंगो । १। अजसकित्तीउदए चत्तारि ४ । सव्वे ५। भातपोद्योतोदयरहितसामान्यैकेन्द्रियस्य जीवस्यैकस्येदमेकविंशतिकं २१ स्थानम् । किं तत् ? तिर्यग्गति तदानुपूव्र्ये २ तैजस-कार्मणद्वयं २ अगुरुलघुकं १ वर्णचतुष्कं ४ यशोऽयशोयुग्म-बादरसूचमपर्याप्तापर्याप्तयुग्मानां त्रयाणामेकतरं । निर्माणं १ स्थिरास्थिरयुग्मं २ शुभाशुभयुग्मं : दुर्भगं ? अनादेयं १ स्थावरं १ एकेन्द्रियजातिकं १ चेति नामप्रकृत्युदयस्थानमेकविंशतिकं २१ विग्रहगत्यां कार्मणशरीरे सामान्यकेन्द्रियस्य भवति । एकविंशतिकं तु पंचधा, एकविंशतिका भङ्गाः ५ भवन्ति । एतेषां भङ्गानां जघन्यकाल एकसमयः, उत्कृष्टतो द्वौ त्रयो वा समयाः ॥११०-१५२॥ अकविंशतिके यशस्कीयुदये सूचमापर्याप्तोदयौ न भवतो यतस्तत एको भङ्गः १ । अयशस्कीयुदये बादर-सूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तोदयाश्चत्वारो भङ्गाः ४ । सर्वे ५। अयशःपाके बादर-पर्याप्तयुग्मयोरन्योन्यगुणिते भङ्गाः ४ । यशःपाके [२] मीलिताः भङ्गाः ५। यशः २९ बाद० २ आतप और उद्योतके उदयसे रहित सामान्य एकेन्द्रियजीवके यह वक्ष्यमाण इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान होता है। वे इक्कीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तिर्यरिद्वक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क; यशःकीर्त्ति-अयश कीर्ति, बादर-सूक्ष्म पर्याप्त-अपर्याप्त इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक-एक निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, स्थावर और एकेन्द्रियजाति । यह इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थान विग्रहगतिमें कार्मणकाययोगकी दशामें होता है। इसका जघन्य काल एक समय, मध्यमकाल दो समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है। इस स्थानके भङ्ग पाँच होते हैं ॥११०-११२॥ विशेषार्थ-इक्कीसप्रकृतिक उदयस्थानके पाँच भङ्गोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-यशः. कीर्ति के उदयके साथ सूक्ष्म, और अपर्याप्त प्रकृतियोंका उदय नहीं होता है, इसलिए यशःकीर्तिके उदयमें एक ही भंग होता है। किन्तु अयशःकीर्तिके उदयमें बादर, सूक्ष्म और पर्याप्त, अपर्याप्त इन प्रकृतियोंका उदय होता है, अतएव इन दो युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे चार भंग हो जाते हैं । इस प्रकार यशःकीर्त्तिके उदयका एक भंग और अयशःकीर्त्तिके उदयमें होनेवाले चार भङ्ग, इन दोनोंको मिला देनेपर पाँच भङ्ग हो जाते हैं। 1. सं०पञ्चसं०.५, १२८-१३० । 2. ५, १,३१, 'तथाऽग्रतनगद्यभागः' (पृ० १७०)। ॐद तस। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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