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________________ सप्ततिका ३४७ इसी प्रकार इकतीसप्रकृतिक स्थानके समान तीसप्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि इसमें तीर्थङ्करप्रकृति छूट जाती है । इस तीसप्रकृतिक स्थानको भी प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयत नियमसे बाँधते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ ६१ ॥ यहाँ पर अस्थिर आदि प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि विशुद्धिके साथ इनसे बँधने का विरोध है । अतएव यहाँ एक ही भंग होता है । 'आहारदुयं अवणिय एकत्ती सम्हि पढममुगुतीसं । बंध अव्त्रकरणो अप्पमतो य नियमेण ॥६२॥ एत्थ वि भंगो ॥१॥ पूर्वोक्ते एकत्रिंशक्के ३१ आहारकद्वयं अपनीय प्रथममेकोनत्रिंशत्कं स्थानं २६ अपूर्वकरणो मुनिबंध्नाति, अप्रमत्तो यतिश्च बध्नाति नियमेन ॥ ६२ ॥ २६ ง अत्र भङ्गः $ एकतीस प्रकृतिक स्थानोंमेंसे आहारद्विक (आहारकशरीर - आहारक - अङ्गोपांग) के निकाल देने पर प्रथम उनतीसप्रकृतिक स्थान हो जाता है । इस स्थानको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत नियमसे बाँधते हैं ॥६२॥ · प्रथम उनतीस प्रकृतिकस्थानमें भी भङ्ग एक ही होता है। " एवं विदिउगुतीसंवरि य थिर सुह जसं च एयदरं । बंध मत्तविरदो अविरयं चैव देसविरदो य ॥ ६३ ॥ "एत्थ देवगईए सह उज्जोवो ण बज्झइ, देवगड़म्मि तत्स य उदयाभावादो । तिरियगई मुत्तूण अण्ण गए सह तस्स बंधविरोधादो । देवाणं देहदित्ती तओ कुदो ? वण्णणामकम्मोदयाओ । एत्थ य थिर-सुभजसजुयलाणि २२/२ अण्णोष्णगुणिया भंगा८ । एवं प्रथम मे कोनत्रिंशत्कोक्तं द्वितीयमेकोनत्रिंशक्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २३ भवति । नवरि विशेषः, किन्तु स्थिरास्थिर- शुभाशुभ-यशोऽयशसां मध्ये एकतरं १|१|१ | अस्थिरादीनां प्रमत्तान्तं बन्धात् । इदं द्वितीयं नवविंशतिकं स्थानं २६ प्रमत्तविरतोऽसंयत सम्यग्दृष्टिर्देशविरतश्च बध्नाति २६ ॥६३॥ अत्र देवगत्या सहोद्योतो न बध्यते, देवगतौ तस्योद्योतस्योदयाभावात् तिर्यग्गतिं मुक्त्वाऽन्यत्रिगत्या सह तस्योद्योतस्य बन्धविरोधः । तर्हि देवानां देहदीप्तिः कुतः ? वर्णनामकर्मोदयात् । अत्र च स्थिरशुभ-यशोयुगलानि २।२।२ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः अष्टौ म २६ Jain Education International 1 इसी प्रकार द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थान जानना चाहिए। विशेषता केवल यह है कि यहाँ पर स्थिर, शुभ और यशः कीर्त्ति; इन तीन युगलों में से किसी एक एक प्रकृतिका बन्ध होता है । इस द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थानको प्रमत्तविरत देशविरत और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं ॥६३॥ यहाँ पर देवगति के साथ उद्योतप्रकृति नहीं बँधती है; क्योंकि देवगतिमें उसका उदय नहीं होता है । तिर्यग्गतिको छोड़कर अन्यगति के साथ उसके बँधनेका विरोध है । यदि ऐसा है, तो देवोंके देहों में दीप्ति किस कर्मके उदयसे होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि वर्णनाम 1. सं० पञ्चसं० ५, १०७ 12. 1, 'एकान्नत्रिंशदियं इत्यादिगद्यांश: । ( पृ० १६७ ) । ३. ५, 'अत्र देवगत्या' इत्यादिगद्य भागः ( पृ० १६७ ) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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