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________________ ३५८ पञ्चसंग्रह फर्मके उदयसे उनके शरीरमें दीप्ति होती है। यहाँ पर स्थिर, शुभ और यश कीर्ति, इन तीन युगलोंके परस्पर गुणित करने पर (२४२४२=) आठ भङ्ग होते हैं। 'तित्थयराहारदुयं एकत्तीसम्हि अवणिए पढमं ।। अट्ठावीसं बंधइ अपुव्वकरणो य अप्पमत्तो य ॥१४॥ एत्थ भंगो १ पुणरुत्तो त्ति ण गहिओ। पूर्वोक्तकत्रिंशत्कनामप्रकृतिबन्धस्थानके तीर्थकरत्वाहारकद्वयेऽपनीते प्रथममष्टाविंशतिक बन्धस्थानं २८ अपूर्वो मुनिः अप्रमत्तो यतिश्च बध्नाति ॥६॥ अत्र भङ्ग एकः १२, पुनरुक्तत्वान्न गृह्यते । इकतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देने पर शेष रहीं अट्ठाईसप्रकृतियोंको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत बाँधता है। यह प्रथम अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान है ॥४॥ यहाँ पर भंग एक ही है, किन्तु वह पुनरुक्त है, अतः उसे ग्रहण नहीं किया गया है। विदियं अट्ठावीसं विदिउगुतीसं* च तित्थयरहीणं । मिच्छाइपमत्तंता बंधगा होति णायव्वा ॥६॥ कुदो एवं ? उवरिजाणं अथिर-असुह-अजसाणं बंधाभावादो। भंगा । पूर्वोक्तं द्वितीयमेकोनत्रिंशत्कं २४ तीर्थकरहीनं सत् द्वितीयमष्टाविंशतिक बन्धस्थानं २८ मिथ्यादृष्ट्यादि-प्रमत्तपर्यन्ता बध्नन्ति द्वितीयाष्टाविंशतिकस्य बन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः ॥१५॥ एवं कुतः ? यन्मिथ्यात्वादि-प्रमत्तान्ता बन्धकाः, अप्रमत्नादयो न; उपरिजानां अप्रमत्तादीनां अस्थिराशुभायशसां बन्धाभावात् । अत्राष्टाविंशतिके २।२।२ गुणिता भङ्गाः अष्टौ । द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्करप्रकृतिके कम कर देने पर द्वितीय अट्ठाईस पकृतिक स्थान हो जाता है। इस स्थानके बन्धक मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत् गुणस्थान सकके जीव होते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥६५॥ ऐसा क्यों है ! इस प्रश्नका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयतादि उपरितन गुणस्थानवर्ती जीवोंके अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति, इन तीनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है। यहाँ पर शेष तीन युगलोंके गुणा करनेसे आठ भङ्ग होते हैं। बंधंति जसं एयं अपुव्वकरण अणियट्टि सुहुमा य । तेरे णव चउ पणयं बंधवियप्पा हवंति णामस्स ॥१६॥ चउगइया १३६४५। अपूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसारपराया मुनयः एकां यशस्कीर्ति बध्नन्ति । देवेषु सर्वभङ्गाः १६ । नाम्नः कर्मणः सर्वे चातुर्गतिका भङ्गाः त्रयोदशसहस्रनवशतपञ्चचत्वारिंशः बन्धविकल्पाः ॥१६॥ चातुगतिका भङ्गाः १३६४५। इति नामकर्मणः बन्धप्रकृतिस्थानानि समाप्तानि । २D 1. सं० पञ्चसं० ५, १०८। 2.५, १०६ । 3. ५, 'कुतो यतो' इत्यादिगद्यांशः। (पृ० १६७)। 4. ५, ११०-१११ । *ब विदिय उणतीसं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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