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कर्मस्व
गुणस्थानों में मूलप्रकृतियोंकी उदीरणाका निरूपण
'घाइतियं खीणता तह मोहमुदीरयंति सुहुमंता ।
तइ आउ पमर्त्तता णाम गोयं सजोअंता ॥ ६ ॥
क्षीणकषायगुणस्थान तकके जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोंकी उदीरणा करते हैं । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके जीव मोहकर्मकी उदीरणा करते हैं । प्रमत्तसंयतगुणस्थान तकके जीव वेदनीय और आयुकर्मकी उदीरणा करते हैं । तथा सयोगिकेवली गुणस्थान तकके जीव नाम और गोत्रकर्मकी उदीरणा करते हैं ॥ ६ ॥
एत्थ मिस्सं वज्र मिच्छाइपमत्तंताणं मरणावलियासेसे आउस्स उदीरणा णत्थि, तेण सत्त, मिस्सो अट्ठ चेव उदीरेइ, आउस्स मरणावलिया सेसे मिस्सगुणाभावादो ।
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यहाँ पर इतना विशेष जानना चाहिए कि मिश्रगुणस्थानको छोड़कर मिथ्यात्व से लेकर प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के जीवोंके मरणावली के शेष रहनेपर आयुकर्मकी उदीरणा नहीं होती है । इसलिए वे सात कर्मोंकी उदीरणा करते हैं। मिश्रगुणस्थानवाला आठों ही कर्मोंको उदीरणा करता है, क्योंकि आयुकर्मकी मरणावली शेष रहनेपर मिश्रगुणस्थान नहीं होता ।
नौ गुणस्थानों में उदीरणाको संदृष्टि इस प्रकार है-
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सा० सि० अ०
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दशवें और बारहवें गुणस्थानमें उदीरणाका नियम
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सगुणा अद्धावलिआसेसे सुहुमोदीरेइ पंचेव ।
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दे० प्र० भ० अपू० अनि०
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अद्धावलियासेसे खीणो णाम- गोदे चैव उदीरेइ ||७||
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सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती जीव अपने गुणस्थानके काल में आवलीमात्र शेष रह जानेपर नाम और गोत्रको छोड़कर शेष पाँचों ही कर्मोंकी उदीरणा करता है । क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव अपने गुणस्थानके काल में आवलीमात्र शेष रह जानेपर नाम और गोत्र इन दो ही कर्मोंकी उदीरणा करता है ॥७॥
शेष गुणस्थानों में उदीरणाकी संदृष्टि इस प्रकार है-
1. सं पञ्चसं० ३, १४ । २.३, १५ | 3. ३, १६ । * द 'इति उदीरणा समाप्ता' इत्यधिकः पाठः ।
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