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________________ २६६ पञ्चसंग्रह प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक बन्धस्थानमें आयुकर्मके विना सातका, छह प्रकृतिक बन्धस्थानमें आयु और मोहकर्मके विना छहका, तथा एक प्रकृतिक बन्धस्थानमें एक वेदनीय कर्मका बन्ध पाया जाता है । मिश्र गुणस्थानके विना अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक छह गुणस्थानोंमें आठों कर्मोका, अथवा आयुके विना सात कर्मोका बन्ध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानोंमें आयुके सिवाय शेष सात कर्मोंका ही बन्ध होता है । एक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोह और आयुके विना शेष छह कर्मोका बन्ध होता है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली, इन तीन गुणस्थानोंमें एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है । अयोगिकेवली नामक चौदहवें गुणस्थानमें किसी भी कर्मका बन्ध नहीं होता है । मूल प्रकृतियोंके उदयस्थान तीन हैं-आठ प्रकृतिक सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । आठ प्रकृतिक उदयस्थानमें सभी मूल प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक उदयस्थानमें मोहकर्मके विना सातका और चार प्रकृतिक उदयस्थानमें चार अघातिया कर्मोंका उदय पाया जाता है। आठों कोंका उदय दशवें गुणस्थान तक पाया जाता है., अतः वहाँ तकके जीव आठ प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी जानना चाहिए । मोहकर्मके सिवाय शेष सात कोका उदय बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। अतः सात प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीव हैं। चार अघातिया कर्मोंका उदय चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव चार प्रकृतिक उदयस्थानके स्वामी हैं । मूल प्रकृतियोंके सत्त्वस्थान तीन हैं-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें सभी मूल प्रकृतियोंका, सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें मोहके विना सात कर्मोंका और चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानमें चार अघा. तिया कर्मोका सत्त्व पाया जाता है । आठों कर्मोंका सत्त्व ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः वहाँ तकके सर्व जीव आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। मोहके विना सात कर्मीका सत्त्व बारहवें गुणस्थानमें पाया जाता है, अतः क्षीणमोही जीव सात प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। चार अघातिया कर्मोका सत्त्व चौदहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, अतः सयोगिकेवली और अयोगिकेवली भगवान् चार प्रकृतिक सत्त्वस्थानके स्वामी हैं। किस बन्धस्थानके साथ कौन कौनसे उदयस्थान और सत्त्वस्थान पाये जाते हैं, इसका निर्णय आगे ग्रन्थकार स्वयं ही करेंगे। - अब आचार्य मूल प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके संभव भंगोका निरूपण करते हैं[मूलगा०३] 'अट्ठविह-सत्त-छब्बंधगेसु अद्वैव उदयकम्मंसा । एयविहे तिवियप्पो एयवियप्पो अबंधम्मि ॥४॥ बन्ध० ८७ ६ बं० ११ १ . उदय० ८ ८ ८ एबबंधे ८० ७ ७ ४ अबंधे ४ सत्त्व. ८८८ सं० ८ ७ ४ अथ ज्ञानावरणादीनां मूलप्रकृतीनां बन्धोदयसत्त्वस्थानत्रयसंयोगं भङ्गभेदं च गाथात्रयेणाऽऽह[ 'अट्टविह-सक्त' इत्यादि । ] अष्टविध-सतविध-षवेधबन्धके उदय-सत्वेऽष्टाष्टविधे स्तः भवतः ८ ८ ८ । 1. सं०पञ्चसं० ५,४ । १. सप्ततिका० ३. परं तत्र 'उदयकम्मंसा' स्थाने 'उदयसंताई' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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