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________________ सप्ततिका एककं १ इति पञ्च स्थानानि । ततः परं बन्धोपरमः बन्ध-रहितः सूक्ष्मसाम्परायादिषु मोहप्रकृतिबन्धो नास्तीत्यर्थः ॥३०॥ आदिके आठ गुणस्थानोंमें मोहकर्मका एक एक बन्धस्थान होता है। अनिवृत्तिकरणमें पाँच बन्धस्थान होते हैं। उससे परवर्ती गुणस्थानों में मोहकमेका बन्ध नहीं होता है ॥३००॥ अब इसी अर्थका भाष्यगाथाकार स्पष्टीकरण करते हैं मिच्छाइ-अपुव्वंताणेगेगं चेव मोहबंधाणि । पंचणियट्टिाणे पंचेव य होंति भंगा हु ॥३०॥ मिच्छादिसु बंधट्टाणाणि २२।२१।१७।१७।१३।६।६।६। अणियट्टिम्मि ५।४।३।२।। मिथ्यादृष्टयाथपूर्व करणान्तं मोहप्रकृतिबन्धस्थानकमेकैकं भवति । भनिवृत्तिकरणे पञ्च बन्धस्थानानि भवन्ति, तदेव पञ्च भङ्गाः ॥३०१॥ मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरण सू० उ० पी० स० अयो. मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर अपूर्वकरण तकके आठ गुणस्थानों में मोहनीयकर्मका एक एक बन्धस्थान होता है । अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थानमें पाँच बन्धस्थान होते हैं और वहाँ पर बन्धस्थान-सम्बन्धी पाँच ही भङ्ग होते हैं ॥३०१॥ मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें बन्धस्थान क्रमशः २२, २१, १७, १७, १३, ६, ६ और ६ प्रकृतिक होते हैं । अनिवृत्तिकरणमें ५,४, ३, २ और १ प्रकृतिक बन्धस्थान होते हैं । अब उक्त बन्धस्थानोंके भंगोंका निरूपण करते हैं 'छब्बावीसे चउ इगिवीसे सत्तरस तेर दो दो दु । णव-बंधए वि दोण्णि य एगेगमदो परं भंगा ॥३०२॥ ६।१।२।२।२। सेसेसु १।१1१1१।१॥ तद्भङ्गानां संख्यामाह-[ 'छब्बावीसे चउ इगिवीसे' इत्यादि ] मिथ्यादृष्टयाध निवृत्तिकरणान्तेषु मोहप्रकृतिबन्धस्थानके द्वाविंशतिके षड् भङ्गाः २२ । एकविंशतिके चत्वारो विकल्पाः ।। सप्तदशके द्विके द्वौ द्वौ भङ्गौ १७ । १७ । त्रयोदशके द्वौ भङ्गी १३ । नवकवन्धस्थानके द्वौ भङ्गौ । अतः परमेकैको भङ्गः ॥३०२॥ मि० सा० मि० भ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनिवृत्तिकरणे २२ २१ ७ १७ १३ १ १ ५ ४ ३ २१ एवं २५। बाईसप्रकृतिक बन्धस्थानमें छह भङ्ग होते हैं । इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थानमें चार भङ्ग होते हैं । सत्तरह और तेरहप्रकृतिक बन्धस्थानों में दो दो भङ्ग होते हैं । नौप्रकृतिक बन्धस्थानमें भी दो ही भङ्ग होते हैं। इससे आगेके बन्धस्थानोंमें एक एक ही भङ्ग होता है ॥३०२।। बन्धस्थानों में भङ्गोंकी संदृष्टि इस प्रकार हैबन्धस्थान २२ २१ १७ १३ ४ ५ ४ ३ २ १ भङ्ग ६ ४ २ २ २ १ १ १ १ १ 1. सं० पञ्चसं० ५, ३२६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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