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________________ पञ्चसंग्रह पाठकोंके सामने रखेंगे। खास तौरसे वे 'पञ्चसंग्रहकार कौन हैं, उनका समय क्या रहा,' इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नके समाधानके लिए अपनी अनुसन्धान-प्रवृत्तिको आगे बढ़ावें, ऐसा मेरा नम्र निवेदन है। प्रस्तावनाके लिए ग्रन्थको और आगे रोकना मैंने उचित नहीं समझा और इसलिए जैसी भी सम्भव हो सकी है, वैसी लिखकर उसे पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करना ही उचित समझा है। प्रतियोंकी प्राप्तिके लिए मैं श्री ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन व्यावर, दि० जैन पंचायती मन्दिर, खजूर मस्ज़िद दिल्ली, दि० जनशास्त्र-भण्डार ईडर और श्रीमहावीर-शास्त्र-भण्डार जयपुरके संचालकों और व्यवस्थापकोंका आभारी हैं, जिन्होंने कि अपने-अपने भण्डारोंसे अलभ्य प्राचीन प्रतियाँ प्रस्तुत संस्करणके लिए भेजी हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीने भी अपनी हस्तलिखित मूल प्रति और प्राकृतवृत्ति मिलानके लिए दी, इसलिए मैं उनका भी आभारी हूँ। ग्रन्थके अधिकार-विभाजनमें श्री पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्त-शास्त्रीने समय-समयपर समुचित परामर्श दिया और संस्कृत टीकाके भी साथमें प्रकाशनार्थ प्रेरणा दी, इसके लिए मैं उनका भी आभारी हूँ । ग्रन्थगत अनेक संदिग्ध पाठोंके निर्णय करने में तथा अनवाद-सम्बन्धी कितनी ही गत्यियोंके सुलझाने में श्री पं० फलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका सदैवकी भांति पूर्ण साहाय्य प्राप्त हआ है, इसलिए मैं उनका भी बहत आभारी हूँ। सिद्धान्त ग्रन्थोंके गहरे अभ्यासी श्री० ब्र० रतनचन्द्रजी नेमिचन्द्रजी सहारनपुरसे भी समयसमयपर समुचित सूचनाएँ मिलती रही हैं, और श्री० पं० महादेवजी चतुर्वेदी, व्याकरणाचार्य काशीसे अनेक संदिग्ध पाठोंके संशोधनमें भरपूर सहयोग मिला है; एतदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ। ग्रन्थ-मुद्रणके समय प्रूफ़-संशोधनार्थ मुझे भारतीय ज्ञानपीठ काशीमें तीन बार लम्बे समय तक ठहरना पड़ा। उस समय मेरो सुख-सुविधा एवं मुद्रण आदिको समुचित व्यवस्था करनेमें ज्ञानपीठके व्यवस्थापक और उनके स्टाफके समस्त सदस्योंका जो प्रेममय व्यवहार रहा है, उसके लिए में किन शब्दोंमें अपनी कृतज्ञता व्यक्त करूँ। सन्मति-मुद्रणालयके कम्पोजीटर्स और कर्मचारियों तकका मेरे साथ मधुर व्यवहार रहा है, इसके लिए मैं उन सबका आभारी हूँ। श्रावक-शिरोमणि श्रीमान साह शान्तिप्रसादजी द्वारा संस्थापित एवं सौ० श्री रमारानी द्वारा संचालित यह भारतीय ज्ञानपीठ अपने पवित्र सदुद्देश्योंकी पूर्तिमें उत्तरोत्तर अग्रेसर रहे, यही अन्तिम मङ्गल-कामना है। भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, २९-४-६० -हीरालाल शास्त्री साढूमल ( झांसी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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