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________________ सम्पादकीय वक्तव्य पन्द्रह वर्षसे भी अधिक हुए, जब मुझे प्राकृत पञ्चसंग्रहकी मूल प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावरसे प्राप्त हुई और तभी मैंने उसकी प्रतिलिपि कर ली। उसके पश्चात् अन्य कार्यों में व्यस्त रहनेसे इच्छा रहनेपर भी मैं उसका अनुवाद प्रारम्भ नहीं कर सका। दिनाङ्क ८-३-५३ को अनुवाद करना प्रारम्भ किया, पर वह भी लगातार चालू नहीं रह सका और बीच-बीचमें व्यवधान पड़ता रहा। अन्तमें सन् १९५७ के दिसम्बरमें वह पूरा किया जा सका और उसके पश्चात वह प्रकाशनार्थ भारतीय ज्ञानपीठ काशीको सौंप दिया गया। सम्पादक-मण्डलकी स्वीकृति मिल जानेपर ग्रन्थ प्रेसमें दे दिया गया । इसी समय पञ्चसंग्रहकी अधूरी संस्कृत टीका हस्तगत हुई और उसके प्रकाशनार्थ भी सम्पादक-मण्डलको लिखा गया। उसके भी प्रकाशनकी स्वीकृति मिलनेपर मूल और अनुवादके साथ नवमें फार्मसे उसका छपना प्रारम्भ कर दिया गया। इसी बीच प्राकृतवृत्तिको प्रति आमेरके भण्डारसे और डडाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रहकी प्रति ईडरके भण्डारसे प्राप्त हुई । दोनोंको उपयोगिता समझकर उनके भी प्रकाशनार्थ सम्पादक-मण्डलने स्वीकृति दे दी और अनुवादके अन्तमें दोनोंको मुद्रित करनेका निर्णय किया गया। फलस्वरूप १८ मासमें यह सम्पूर्ण ग्रन्थ भुद्रित हो सका है । इस प्रकार पूरे पन्द्रह वर्षके पश्चात् पञ्चसंग्रहके सानुवाद-प्रकाशनकी भावना पूर्ण हुई। इसके लिए मैं भारतीय ज्ञानपीठके संस्थापक, संचालक और सम्पादक-मण्डलका आभारी हूँ। ग्रंथके सम्पादनमें पहले मूलगाथा दी गई है, उसके नीचे संस्कृत टीका ( जहाँसे वह उपलब्ध हुई) और उसके नीचे हिन्दी अनुवाद दिया गया है। अमितगतिकृत मुद्रित मूल-संस्कृत पञ्चसंग्रहके जो श्लोक मूल गाथाके छायानुवाद रूप हैं, उन्हें गायारम्भमें रोमन अङ्कोंके द्वारा टिप्पण-अङ्क देकर टिप्पणीमें सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। दूसरे ग्रन्थों में पायी जानेवाली या समता रखनेवाली गाथाओंके ऊपर हिन्दी अङों टिप्पण-अङ्क देकर उसके नीचे टिप्पणीमें स्थान दिया गया है। तदनन्तर प्रतियोंमें प्राप्त होनेवाले पाठ-भेदोंको (+) इत्यादि प्रकारके चिह्न-विशेष देकर टिप्पणीमें स्थान दिया गया है । इन तीनों प्रकारकी टिप्पणियोंमें से प्रथम प्रकारको टिप्पणीको ग्रन्थारम्भसे लेकर ग्रन्थ-समाप्ति तक चाल रहनेके कारण प्रथम स्थान देना उचित समझा गया है। ___ संस्कृत टीका-गत जो पद्य जिस ग्रन्थके रहे हैं, उनकी सूचना टिप्पणीमें यथास्थान कर दी गई है। डड्डाकृत संस्कृत पञ्चसंग्रहमें जो टिप्पणियाँ दी गई हैं, वे सब आदर्श प्रतिके हासियेपर लिखी हुई प्राप्त हुई हैं। प्रतिकी प्राचीनता, लेखनकी समता और अर्थ-बोधकी सरलता आदि कई बातें ऐसी हैं जो हमें यह कहनेके लिए प्रेरित करती हैं कि इन टिप्पणियोंको स्वयं ग्रन्थकार श्री डड्डाने ही लिखा है। पञ्चसंग्रह जैसे प्राचीन एवं दुर्गम ग्रन्थके अनुवादका काम कितना कठिन रहा है, यह उसके अभ्यासियोंसे छिपा न रहेगा। मैने शक्ति-भर पूरी सावधानी रखी है, फिर भी यदि कहीं कोई चूक रह गई हो, तो विद्वान् पाठकोंसे निवेदन है कि वे उसका सुधार कर लेवें और उससे मुझे सूचित करें। किसी भी ग्रन्थकी प्रस्तावना लिखनेका कार्य अनुवादसे अधिक कठिन होता है। फिर जिसके कर्ता आदिका पता न हो, और दि० श्वे० दोनों सम्प्रदायोंमें मान्य रहा हो, तथा जिसपर दोनों सम्प्रदायके आचार्योंने स्वतन्त्र चणि और टीका-टिप्पण आदि लिखे हों, उसकी प्रस्तावना लिखनेका कार्य तो और भी अधिक गुरुतर एवं समय-साध्य होता है। उसके लिए पर्याप्त समय और पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री अपेक्षित है। मेरे लिए समय और साधन दोनोंकी कमी रही है, इसलिए चाहते हए भी मैं उन सब बातोंपर प्रकाश नहीं डाल सका हूँ, जिनपर कि उसको आवश्यकता थी। फिर भी कुछ महत्त्वपर्ण बातोंको मैने प्रस्तावनामें चर्चा की है और आशा करता हूँ कि इस विषयके अधिकारी विद्वान अपेक्षित सभी मख्य बातोंपर अनुसन्धान करेंगे और उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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