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________________ सप्ततिका अब भाष्यकार इन्हीं भंगोंको गाथाके द्वारा प्रकट करते हैं 'तेरस सयाणि सयरिं सत्तेव तहा हवंति णेया दु । उदयवियप्पे जाणसु संजमलंभेण मोहस्स ॥३८६॥ م و 'तेरस सयाणि सयरिं' इत्यादि।संयमालम्बनेन गोहनीयस्य उदयस्थानविकल्पिा :...... जानी] हि । किं तत् ? त्रयोदश शतानि सप्तसप्तत्यप्राणि १३७७ मिलित्वा भवन्तीति जानीहि ॥३८॥ संयमकी प्राप्तिकी अपेक्षा मोहनीय कर्मके उदयविकल्प तेरह सौ सतहत्तर (१३७७) होते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥३८६।। संयमकी अपेक्षा उदयविकल्पोंकी संदृष्टिगुणस्थान उदयविकल्प संयम गुणकार सर्वभंग प्रमत्तसंयत ८ ३ २४ ५७६ अप्रमत्तसंयत ८ ३ २४ ५७६ अपूर्वकरण . ४ २ २४ १६२ अनिवृत्तिकरण २ १६ ३२ सूक्ष्मसाम्पराय सर्व उदय-विकल्प-१३७७ अब संयमकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्दों की संख्या बतलाते हैं पमत्तापमत्ताणं उदयपयडीओ ४४।१४। तिसंजमगुणा १३२।१३२ । अपुब्वे उदयपयडीओ २० । दो संजमगणा ४०। एए चउवीसभंगगुणा ३१६८।३१६८।६६० सव्वे वि मेलिया ७२६६। अणियट्टीए बारहभंगा दुपयडिगुणा २४ । एकोदया ४ । मेलिया २८ । दो वि दुसंजमगुणा ५६ । सुहुमे एगोदओ १ एयसंजमगुणो १ । सव्वे वि मेलिया ..........."पदबन्धाः प्रमत्ताप्रमत्तयोरुदयप्रकृतयः प्रम. ४४ । अप्र० ४४ । संयमत्रयगुणाः प्रम० १३२ [ अप्र० १३२......"भ ] पूर्वे उदयप्रकृतयः २० द्विसंयम गुणाः ४० । ते चतुर्विशतिभङ्गगुणाः प्रम• ३१६८ । अप्र० ३१६८ । [..."अपूर्वे . ] ६० । सर्वेऽपि मीलिताः ७२६६ । अनिवृत्तिकरणे सवेदभागे द्वे प्रकृती २ द्वादशभंगैगणिताः..........[ २४ । अवे । ] दभागे एकोदयप्रकृतिः १ चतुभिः ४ संज्वलनैगु णिता मिलिता २८ । सामायिकच्छेदो [ पस्थापनासंयमाभ्यां द्वा ] भ्यां गुणिताः ५६ । सूचमे एकोदयः सूचमलोभः १ एकेन सूचमसाम्परायसंयमेन गुणितः १ ..................[ सर्वेऽपि मी]लिताः किमिति ? प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें उदयप्रकृतियाँ ४४, ४४ हैं। इन्हें तीन संयमोंसे गुणा करने पर १३२, १३२ भंग प्राप्त होते हैं । अपूर्वकरण उदयप्रकृतियाँ २० है, उन्हें दो संयमोंसे गणा करने पर ४० भङ्ग होते हैं । इन सर्व भंगोंको चौबीस भंगोंसे गणा करने पर ३१६८ ३१६८ और ६६० भंग हो जाते हैं। ये सर्व मिलकर ७२६६ भंग होते हैं। अनिवृत्तिकरणमें बारह भंगोंको दो प्रकृतियोंसे गणा करने पर २४ भंग होते हैं । तथा एक प्रकृतिके उदयवाले ४ भंग उनमें मिला देने पर २८ भंग हो जाते हैं । उन्हें दोनों संयमोंसे गुणा करने पर ५६ भंग हो जाते हैं । सूक्ष्मसाम्परायमें एक प्रकृतिका उदय होता है और संयम भी एक ही होता है, अतः एक 1. सं० पञ्चसं० ५, ३६३-३६४ । 2.५, ३६५ । तथा तदधस्तनगद्यांशः (पृ० २२२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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