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________________ ४८० पञ्चसंग्रह को एकसे गुणित करने पर भंग एक ही रहता है। इस प्रकार ये उपर्युक्त सर्व भङ्ग मिलकर ७३५३ हो जाते हैं। अब भाष्यकार इन्हीं भंगोंको गाथाके द्वारा उपसंहार करते हैं 'सत्तेव सहस्साईतिण्णेव सया हवंति तेवण्णा । पयसंखा णायव्वा संजमलंभेण मोहस्स ॥३०॥ [ 'सत्तेव सहस्साई' इत्यादि । ] संयमावलम्बनेन मोहनीयस्योदयप्रकृतयः सप्त सहस्राणि त्रीणि श[तानि] त्रिपञ्चाशत् ७३५३ पदबन्धसंख्या भवन्तीति ज्ञातव्याः ॥३०॥ ____ संयमकी प्राप्तिकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके पदवृन्दोंकी संख्या सात हजार तीन सौ तिरेपन (७३५३) होती है, ऐसा जानना चाहिए ॥३६०॥ इन पदवृन्दोंकी संदृष्टि इस प्रकार है गुणस्थान उदयपद संयम भङ्ग गुणकार सर्वभंग प्रमत्तविरत ४४ ३ १३२ २४ ३१६८ अप्रमत्तविरत ४४ ३ १३२ २४ ३१६८ अपूर्वकरण २० २ ४० २४६६० अनिवृत्तिकरण २ २ ४ १२ . ४८ सूक्ष्मसाम्पराय ? सर्व-पदवृन्द-७३५३ अब सस्यक्त्वकी अपेक्षा मोहकर्मके उदय-विकल्पोका निरूपण करते हैं असंजदादिसु उदया ८८1८। तिसम्मत्तगुणा २४२४॥२४॥२१। अपुग्वे उदया ४ दुसम्मत्तगुणा ८ एए सब्वे वि चउवीसभंगगुणा ५७६।५७६१५७६।५७६।१६२। सव्वे वि मेलिया २४६६ । अणियट्टिसुहमाणं उदया १७ दुसम्मत्तगुणा ३४ दो वि मेलिया ___ अथ सम्यक्त्वमाश्रित्य मोहोद[यप्रकृतिभङ्गान् दर्शयति--असंयतादिगुणस्थानचतुष्टये उदयस्थानविकल्पाः अविरते ८। दे०८। प्र० ८ अप्र० ८। उपशम-वेदक-क्षायिकसम्यक्त्वत्रयेण गणिताः अवि० २४ । दे०२४। प्रम. २४ । अप्र० २४ । अपूर्वकरणे उदयस्थानानि ४ उपशम-नायिकाभ्यां २ द्वाभ्यां सम्यक्त्वाभ्यां गणितानि । एते उदयस्थानविकल्पाः सर्वेऽपि चतुर्विशत्या २४ भंगैगणितानि असंयमे ५७६ । दे० ५७६ । प्र० ५७६ । अप्र. ५७६ । अपूर्वे १६२। सर्वेऽपि मीलिताः ३४१६ । अनिवृत्तिकरणसूचमसाम्पराययोरुदयस्थानविकल्पाः सप्तदश १७ । उपशम-क्षायिकसम्यक्त्वाभ्यां द्वाभ्यां २ गणिताः३४ । उभये मीलिताः असंयत आदि चार गुणस्थानों में मोहकर्मके उदयस्थान ८, ८, ८, होते हैं । उन्हें तीनों सम्यक्त्वोंसे गुणा करने पर २४, २४, २४, २४ भङ्ग होते हैं । अपूर्वकरणमें उदयस्थान ४ हैं। उन्हें दो सम्यक्त्वसे गुणा करने पर ८ भङ्ग होते हैं । इन सबको चौबोस भगोंसे गुगा करने पर ५७६, ५७६, ५७६, ५७६, १६२ भग होते हैं । ये सर्व मिलकर २४६६ हो जाते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें उदयप्रकृतियाँ १७ हैं। उन्हें दो सम्यक्त्वोंसे गुणा करने पर ३४ भग प्राप्त होते हैं । इन दोनों राशियोंको मिला देने पर २५३० उदयविकल्प हो जाते हैं। 1. सं० पञ्चसं० ५, ३६६, तद्धस्तनगद्यांशः (पृ० २१२) ३६७ श्लोकश्च । 2.५, ३६८-३६६ । तथा 'असंयतादिगुणचतुष्टये' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २१३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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