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________________ ग्रन्थ-विषय-सूची २८० मूल प्रकृतियोंके जघन्यादि बन्ध-सम्बन्धी प्रदेश बन्धका वर्णन सादि-आदि भेदोंकी प्ररूपणा जीवके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले कर्मरूप उत्तर प्रकृतियोंके सादि आदि भेदोंकी प्ररूपणा २५४ पुद्गल द्रव्यका प्रमाण २८० कर्मोकी स्थितियोंमें शुभ और अशुभपनेका प्रति समय आनेवाले कर्म-पिण्डका आठ कर्मों में निरूपण २५५ विभाजन २८१ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध-गत कुछ विशिष्ट प्रकृतियोंके मूलकर्मोके उत्कृष्टादि प्रदेश बन्धके सादि आदि स्वामियोंका निरूपण २५६ भेदोंका वर्णन २८२ शेष उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकोंका उत्तर प्रकृतियोंके प्रदेश बन्धके सादि आदि निरूपण २५७-२५८ भेदोंका वर्णन २८२-२८३ जघन्य स्थितिबन्धके स्वामित्वका निरूपण २५८-२५९। गुणस्थानोंकी अपेक्षा मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्धका निरूपण २६० प्रदेश बन्धके स्वामित्वका निरूपण २८४ मूलप्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि भेदोंमें सम्भव मूलप्रकृतियोंके जघन्य प्रदेश बन्धके स्वामित्वका सादि आदि अनुभागबन्धका निरूपण २६१ वर्णन २८५ उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टादि भेदोंमें उत्तर प्रकृतियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके स्वामित्वका सम्भव सादि आदि अनुभाग बन्धकी वर्णन २८६ प्ररूपणा उत्कृष्ट प्रदेश बन्धकी सामग्री विशेषका निरूपण २८७ मूल और उत्तर प्रकृतियोंके स्वमुख-परमुख उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्ध और उनके विपाकरूप अनुभागका निरूपण ६४ . स्वामित्वका निरूपण २८८ प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धका चारों बन्धोंके कारणोंका निर्देश २८९ वर्णन २६५ चारों बन्धोंका स्वरूप २९० तीव्र अनुभाग बन्धके स्वामित्वका निरूपण २६५ योगस्थान, प्रकृति-भेद, स्थिति बन्ध्याध्यवसाय प्रशस्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश २६५ स्थान, अनुभाग बन्ध्याध्यवसाय स्थान और अप्रशस्त प्रकृतियोंका नाम-निर्देश । २६६ प्रदेश बन्धादिके अल्पबहुत्वका निरूपण २९१ कुछ विशिष्ट प्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग शतककार-द्वारा ग्रन्थका उपसंहार और अपनी बन्ध करनेवाले जीवोंका वर्णन २६७ लघुताका प्रदर्शन २९२ अप्रशस्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध करने प्रकृत ग्रन्थके अध्ययनका फल २९३ _वाले जीवोंका वर्णन २६८ ५. सप्ततिका अधिकार २६४-५४० जघन्य अनुभाग बन्धके स्वामित्वका निरूपण २७०-२७४ । भाष्य गाथाकार-द्वारा मंगलाचरण और प्रतिज्ञा २९४ सर्वघाति प्रकृतियोंका निरूपण २७४ ७४ सप्ततिकाकार-द्वारा बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके देशघाति , , २७५ कथनकी प्रतिज्ञा २९४ पुण्य और पापरूप प्रकृतियोंका वर्णन बन्ध, उदय और सत्त्व-सम्बन्धी भंगोंको जाननेकी चतुःस्थानीय-त्रिस्थानीय आदि अनुभागबन्धका . सूचना निरूपण २७६ मूल प्रकृतियोंके बन्ध, उदय और सत्त्व स्थानोंके। पुण्य और पापरूप प्रकृतियोंके अनुभागका दृष्टान्त- सम्भव भंगोंका निरूपण २९६ पूर्वक वर्णन २७६ चौदह जीव समासोंमें बन्ध, उदय और सत्त्व प्रत्ययरूप अनुभागबन्धका निरूपण २७७ स्थानोंके संयोगी भंगोंका निरूपण २९७ पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी गुणस्थानोंमें बन्धादि-त्रिसंयोगी भंगोंका निरूपण २९८ प्रकृतियोंका निरूपण २७८ मूल प्रकृतियोंके समान उत्तर प्रकृतियोंमें भी जीवविपाकी प्रकृतियोंका निरूपण २७९ बन्धादि-त्रिसंयोगी भंगोंको जाननेकी सूचना २९९ २७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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