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________________ सप्ततिका ५३३ करणः क्षपकः बादरलोभं क्षपयति सूचमकुष्टीः करोति । ताः कृष्टयः सूचमसाम्पराये उदयन्तीति ज्ञातव्यम् । सूक्ष्मसाम्परायः सूचमसाम्पराये सूक्ष्मकृष्टिगत सूक्ष्म संज्वलन लोभं क्षपयति १ । सूक्ष्मसाम्पराये सूक्ष्मसंज्वलनलोभो त्युच्छिन्नः । भनिवृत्तिकरणे मायापर्यन्तषट्त्रिंशत्प्रकृतयः क्षयं गता व्युच्छिन्ना भवन्ति । अनिवृत्तिकरणे षोडशाष्टकादिक्षपणाविधानरचनासंदृष्टि: ६ , न० स्त्री० नो० पु० क्रो ० मा० मा० बादरलो० सू०लो० क्षीणकषायस्य द्विचरमसमये उपान्त्यसमये छद्मस्थः चपकः निद्रा प्रचले द्व े प्रकृती हन्ति हिनस्ति क्षपयति २ । अन्त्यसमये चरमे क्षणे ज्ञानावरणपञ्चकं ५ अन्तरायपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षु रवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्कं ४ इति चतुर्दश प्रकृतीः क्षीणकषायो मुनिरन्त्यसमये क्षपयति १४ ॥४६२-४६४॥ १६ प्र० ८ क० 9 S 9 Jain Education International तदनन्तर वह अनिवृत्तिकरणसंयत आठ मध्यम कषायोंका क्षय करता है । तत्पश्चात् नपुंसकवेदका क्षय करता है । तदनन्तर स्त्रीवेदका क्षय करता है । तदनन्तर नोकषायषट्कको पुरुषवेद में संक्रान्त करता है । तदनन्तर पुरुषवेदको संज्वलनक्रोधमें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनक्रोधको संज्वलनमानमें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनमानको संज्वलन मायामें संक्रान्त करता है । तदनन्तर संज्वलनमायाको संज्वलनलोभमें संक्रान्त करता है और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में संज्वलनलोभका क्षय करता है । पुनः बारहवें गुणस्थान में पहुँचकर वह क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ बन जाता है और अपने गुणस्थानके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है । पुनः चरम समय में ज्ञानावरणकी पाँच, अन्तरायकी पाँच और दर्शनावरणकी चार इन चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है ।।४६२-४६४॥ 9 भावार्थ- क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाला जीव इस उपर्युक्त प्रकारसे कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ दशवें गुणस्थान में मोहका पूर्ण रूपसे क्षयकर तथा बारहवें गुणस्थान में शेष तीन घातिया कर्मोंका भी क्षय करके सयोगिकेवली बन जाता है । सयोगिकेवली भगवान् किसी भी कर्मका क्षय नहीं करते हैं किन्तु प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी निर्जरा करते हुए विहार करते रहते हैं । तदनन्तर योग-निरोध करके अयोगी बन जाते हैं । १ [मूलगा ०६५ ] देवगइ सहगयाओ दुचरिमभवसिद्धियहि खीयंति । विवादरमयगणाम णीचं पि एत्थेव ॥ ४६५॥ 1. सं० पञ्चसं० ५, ४६६ । ४. सप्ततिका० ६५ । द्विचरमभवसिद्ध अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमये उपान्त्यसमये देवगतिः १ देवगव्या सह गता देवगतिसम्बन्धिनी देवगत्यानु पूर्वी इत्यर्थः १ । इयं प्रकृतिरेका क्षेत्र विपाका १ सविपाकेतरमनुष्यगतिनामजीवविपाकिन्यः पुद्गलविपाकिन्यश्च एकोनसप्ततिनामप्रकृतयः ६६ नीचगोत्र १ एवं द्वासप्ततिं प्रकृतीरुपान्त्य समयेऽयोगी क्षपयति ७२ ॥४६५॥ अयोगिकेवली चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम भवसिद्धकाल में देवगति सहगत अर्थात् देवगति के साथ नियम से बँधनेवाली दश प्रकृतियोंका, मनुष्यगति-सम्बन्धी जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंका, अयोगि अवस्था में जिनका उदय नहीं आता है, ऐसी नामकर्म की अविपाकी प्रकृतियोंका तथा नीचगोत्रका क्षय करते हैं ॥४६५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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