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________________ ५३२ पञ्चसंग्रह प्रथम अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क, पुनः मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, ये सात प्रकृतियाँ अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत इन चार गुणस्थानों में क्षयको प्राप्त होती हैं। अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात बहुभागोंके व्यतीत हो जानेपर और संख्यातवें भागके शेष रह जानेपर स्त्यानगृद्धित्रिक, तथा नरकगति और तिर्यग्गति प्रायोग्य अर्थात् तत्सम्बन्धी तेरह, इस प्रकार सोलह प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती हैं ॥४८६-४६०॥ अव भाष्यगाथाकार नवे गुणस्थानमें क्षय होनेवाली उन सोलह प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं 'थीणतियं णिरयदुयं तिरियदुयं पढमजाइचहुँ । साहारणं च सुहुमं आयावुजोव थावरयं ॥४९१॥ एस्थ णिरयणामाओ गिरयदुयं । तिरियदुगादि तिरियगइणामाओ ।१६। एकेन्द्रिय-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजातिचतुष्कं ४ साधारणं १ सूचमं १ आतपः १ उद्योतः १ स्थावरं । चेति षोडश प्रकृतीः क्षपकाः अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमभागे क्षयन्ति १६ ॥४६१॥ स्त्यानत्रिक अर्थात् स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचला-प्रचला; नरकद्विक (नरकगतिनरकगत्यानुपूर्वी) तिर्यग्द्विक (तिर्यग्गति-तिर्यग्गत्यानुपूर्वी) एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, साधारण, सूक्ष्म, आतप, उद्योत और स्थावर इन सोलह प्रकृतियोंका नवें गुणस्थानमें क्षय होता है ॥४६१॥ यहाँ ऊपर मूलगाथामें नरकद्विकको नरकनाम और तिर्यद्विकको तिर्यग् नामसे कहा गया है। [मूलगा०६२] एत्तो हणदि कसायट्ठयं च पच्छा णउंसयं इत्थी । तो णोकसायछकं पुरिसवेदम्मि संछुहह ॥४६२॥ E१६। [मूलगा०६३] पुरिसं कोहे कोहं माणे माणं च छुहइ मायाए । मायं च छुहइ लोहे लोहं सुहमम्हि तो हणइ ॥४६३॥ १।११।३।। [मूलगा०६४] खीणकसायदुचरिमे णिद्दा पयला य हणइ छदुमत्थो । णाणंतरायदसयं दसणचत्तारि चरिमम्हि ॥४६४॥ २॥१४॥ भवानिवृत्तिकरणे षोडशप्रकृतिक्षयानन्तरं अनिवृत्तिकरणः आपकः कषायाष्टकं शेषेकभागे अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-कषायाष्टकं पयति क्षयं करोति हिनस्ति ८। पश्चात् तदनन्तरं शेषकभागे नपुसकवेदं तपयति । ततः शेषेकभागे स्त्रीवेदं पयति । ततो हास्यादिनोकपायषटकं हिनस्ति पयति ६ । नोकषायषटकं हित्वा पुवेदं 'संछुहइ' संस्पशति क्षपयति १ । पुवेदं हित्वा संज्वलनक्रोधे संस्पृशति, क्रोधं रुपयतीत्यर्थः। क्रोधं हित्वा संज्वलनमाने संस्पृशति, संज्वलनमानं क्षपयतीत्यर्थः । ततो मानं हित्वा चयं कृत्वा मायायां स्पृशति, मायां पयतीत्यर्थः। ततो मायां हित्वा पयित्वा लोहे स्पृशति । अत्रानिवृत्ति. 1.सं० पञ्चसं० ५, ४६५। 2. '५, ४६६। 3. ५, ४६७ । 4. ५, ४६८। १. श्वे. सप्ततिकामें यह गाथा नहीं है। २. सप्ततिका०६४ । ३. श्वे० सप्ततिकामें यह गाथा भी नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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