SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका लेकर स्पर्श नाम कर्म तककी पचास प्रकृतियाँ तथा शुभ-युगल, प्रत्येकशरीर, अगुरुलबु, निर्माण, परघात, उपघात और स्थिर-युगल; ये नौ, दोनों मिलाकर उनसठ पुद्गलविपाकी प्रकृतियाँ हैं। देवगतिके साथ नियमसे बँधनेवाली दश प्रकृतियाँ, देवगतिद्विक और नीच गोत्र इस प्रकार (१०+ ५६+२+ १ =७२) ये बहत्तर प्रकृतियाँ अयोगिकेवलीके द्विचरम समयमें क्षय होती हैं। उन्हींके अन्तिम समयमें बादर, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, कोई एक वेदनीयकर्म, मनुष्यायु, मनुष्यगति-युगल, तीर्थकर, पंचेन्द्रिय जाति, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र, ये तेरह प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती हैं। इस प्रकार सर्व कर्म-प्रकृतियोंका क्षय करनेवाले वे अयोगिजिन हम आप सबके वन्दनीय हैं ॥४६७-५००।। अयोगि जिनके द्विचरम समयमें ७२ और चरम समयमें १३ प्रकृतियोंका क्षय होता है। 'सुर-णिरय-तिरियाऊहिं विणा मिच्छे १४५ तित्थयराहारदुगूणा सासणे १४२ आहारदुगेण सह मिस्से १४४ तित्थयरेण सह अविरदे १४५ देसे १४५ पमत्ते १४५ अप्पमत्ते ४५ अपुब्वे १३८ अणियट्टि ११ णवभाएसु १३८ १२२ १४४ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ सुहुमे १०२ उवसंते १४६ खीणदुच १० २६ ३४ ३५ ३६ ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ रिमसमए १०१ (चरिमसमये १ सयोगे ८५ अयोगदुचरिमसमये ८५ चरिमसमये १३ सिद्ध । १३५ १४८ मिथ्या० . देव-नारक-तिर्यगायुभिविना मिथ्याष्टौ सत्ता ...... भाहारकद्वय-तीर्थरस्वस्त्रिभिविना सासादने . मिथ्या० सा० अवि० देश० मिश्र० । तीर्थकरेण सह असंयतसम्यग्दृष्टौ ... देशसंयते ० र ११ आहरकद्वयेन सह मिश्रे ७ प्रम० अप्रमत्त अपू० __ अप्रमत्ते ..... अपूर्वकरणे ... अनिवृत्तिकरणस्य नवसु भागेषु १३८ १४५ मत्त १४५ १० १२२ ११४ १३५ ११३ ११२ १०६ १०५ १०४ १०३ सूचमसाम्पराये १०२ उपशान्ते १४६ क्षीणकषाय३५ ३६४२ ४३ ४४ ४५ १४ ७२ द्विचरसमये १०१ क्षीणकषायचरमसमये १ सयोगिकेवलिनि ५५ अयोगिद्विचरसमये ८५ अन्त्यसमये ६३ ४९ ६३ १३ सिद्धे १३५ १४८ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'रभ्रदेव' इत्यादिगद्यांशः (पृ० २२४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy