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सप्ततिका होते हैं । तथा शेष पाँच गुणस्थानोंमें इनसे दुगुने अर्थात् एकसौ बानबे एक सौ बानबे होते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय में सत्तरह होते हैं ॥३१६-३१७॥
मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में उदयस्थानोंके भेद इस प्रकार हैं
मि० सा० मि० असं० देश० प्रम० अ० अपूर्व अनि० सवेद० अवेद० सूक्ष्म०
१२ ४
१
१६२ ६६ ६६ १६२ १६२ १६२ १६२ ६६
अब भाष्यगाथाकार इन सर्व संख्याओंका योगफल बतलाते हैंउदट्ठाणे संखा उदयवियप्पा हवंति ते चेव । तेरस चैव सयाणि द पंचत्तीसा य हीणाणि ॥ ३१८ ॥
दु
१२६५ ।
मोहप्रकृत्युदयस्थानानां संख्यास्ते उदयविकल्पाः पञ्चत्रिंशद्धी नास्त्रयोदशशतप्रमिताः द्वादशशतपञ्चषष्टिर्भवन्तीत्यर्थः १२६५ ॥ ३१८ ॥
यह जो उदयस्थानोंकी संख्या है, उन सबका योग पैंतीस कम तेरह सौ अर्थात् बारह सौ पैंसठ होता है, सो ये सब उदयस्थानके विकल्प जानना चाहिए ||३१८||
मोहकर्मके उदयस्थान- विकल्प १२६५ होते हैं ।
४४५
अब आचार्य गुणस्थानों में उदयस्थानोंकी प्रकृतियोंका तथा उनके पदवृन्दोका निरूपण करते हैं
'अडसडी बत्तीसं बत्तीसं सट्ठि होंति बावण्णा ।
चउदालं चउदाल बीसमपुव्वे य उदयपयडीओ ।। ३१६ || ताओ चउवसगुणा पयबंधा होंति मोहम्म | अणिपट्टीसुहुमाणं वारस पंचयदुगेगसंगुणिया ||२२०॥
अथ मोहोदयपदबन्धसंख्यां गुणस्थानेषु गाथानवकेनाऽऽह - [ 'भडसट्ठी बत्तीसं' इत्यादि । ] पूर्वोक्तदशकाद्युदयानां प्रकृतयो मिथ्यादृष्टौ अष्टषष्टिः ६८ । सासादने द्वात्रिंशत् ३२ | मिश्र द्वात्रिंशत् ३२ । असंयते षष्टिः ६० | देशसंयते द्वापञ्चाशत् ५२ । प्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अप्रमत्ते चतुश्चत्वारिंशत् ४४ । अपूर्वकरणे विंशतिः २० चोदयप्रकृतयो भवन्ति । ता एताः दशादिकाः ६८।३२।३२।६०।५२६४४।४४ २० चतुर्विंशत्या २४ गुणिता मोहनीये पदबन्धा उदयविकल्पा भवन्ति । अनिवृत्तिकरणसवेदा २ वेद १ सूक्ष्माणां १ प्रकृत्युदया द्वादश पञ्च द्वय के गुणिताः क्रमेण उदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥ ३३६-३२०॥
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मिथ्यात्वगुणस्थान में उदयस्थानोंकी प्रकृतियाँ अड़सठ हैं, सासादन में बत्तीस हैं, मिश्र में बत्तीस हैं, अविरतमें साठ हैं, देशविरत में बावन है, प्रमत्तविरतमें चवालोस है, अप्रमत्तविरत में चवालीस है, अपूर्वकरणमें बीस है, इन उदयप्रकृतियों को चौबीस से गुणा करने पर आठ गुणस्थानों में मोहकर्मके पदवृन्दों की संख्याका प्रमाण आ जाता है । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायकी उदयप्रकृतियाँ बारह और पाँच हैं, उनके पदवृन्द क्रमशः दो और एकसे गुणित जानना चाहिए ||३१६-३२०॥
1. सं० पञ्चसं० ५, ३४६ । २.५, ३४७-३४६ ।
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