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________________ ४४६ पञ्चसंग्रह 'एवं मोहे पुन्वुत्तदसगादि-उदयपयडीओ मिच्छादिसु ६८॥३२॥३२॥६०॥५२॥४४॥४४ । अपुग्वे २० । अणियट्टिम्मि २११॥ सुहुमे । एयाओ चउवीसगुणा जाव अपुव । मिच्छे ८६४७६८। दो वि मिलिए ११३२ । सासणादिसु ७६८।७६८।१४४०११२४८।१०५६।१०५६।४८०। एदा हु मिलिया ८४४८ । वुत्तं च ___मिथ्यादृष्टयाद्यपूर्वकरणान्तदशकाद्युदयप्रकृतयः ६८॥३२॥३२॥६०१५२१४४१४४।२० चतुर्विंशत्या २४ गुणिताः मिथ्यादृष्टौ ८६४ । द्वि० ७६८ । उभयोर्मीलिताः १६३२ सासादने ७६८ । मिश्रे ७३८ । असंयते १४४० । देशसंयते १२४८ । प्रमत्ते ०५६ । अप्रमत्ते १०५६ । अपूर्वकरणे ४८० । एतासु मीलिताः ८४४८। इस प्रकार मोहकर्मकी पूर्वोक्त दशप्रकृतिक उदयस्थानोंकी उदयप्रकृतियाँ मिथ्यात्व आदि सात गुणस्थानोंमें क्रमशः ६८, ३२, ३२, ६०, ५२, ४४, ४४ होती हैं । अपूर्वकरणमें २० होती हैं। अनिवृत्तिकरणके सवेदभागमें २ और अवेदभागमें १ होती है, तथा सूक्ष्मसाम्परायमें १ उदयप्रकृति होती है। अपूर्वकरणगुणस्थान तककी इन उदयप्रकृतियोंको चौबीससे गुणा करने पर पदवृन्द इस प्रकार होते हैं-मिथ्यात्वमें पहले ३६ के भेदको २४ से गुणा करनेपर ८६४ आये । दूसरे भेदके ३२ को २४ से गुणा करने पर ७६८ आये। दोनोंको मिलाने पर १६३२ पदवृन्द होते हैं । सासादनादिगुणस्थानों में क्रमसे ७६८, ७६८, १४४०, १२४८, १०५६, १०५६, ४८० पदवृन्द होते हैं । ये सर्व मिलकरके ८४४८ पदवृन्द हो जाते हैं। अब इसी कथनको भाष्यगाथाकार निरूपण करते हैं 'चउसट्ठी अट्ठसया अट्ठी होति सत्तसया । बत्तीसा सोलसया जुत्ता मिच्छम्मि उभओ वि ॥३२१॥ मिच्छे ।५६३२। एतदुक्तं च--['चउसट्टी अदृसया' इत्यादि।] चतुःषष्टयधिकाष्टशतानि ८६४ अष्टपष्टयधिकसप्तशतानि ७६८ उभयविमिश्रे द्वात्रिंशदधिकषोडशशतप्रमिता मोहोदयप्रकृतिविकल्पा मिथ्यादृष्टौ १६३२ भवन्ति ॥३२१॥ मिथ्यात्वमें आठ सौ चौंसट (६४) और सात सौ अड़सठ (७६८) ये दोनों मिलकरके सोलह सौ बत्तीस (१६३२) पदवृन्द होते हैं ॥३२१॥ मिथ्यात्वमें १६३२ पदवृन्द हैं। अट्ठट्ठी सत्तसया सासण-मिस्साण होंति पयबंधा । अविरयम्मि चोदह सयाणि चत्तालसहियाणि ॥३२२॥ ७६८७६८।१४४०॥ सासादन-मिश्रयोरष्ट षष्यधिकसप्तशतप्रमिताः ७६८ । ७६८। असंयते चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशत. प्रमिताः १४३० पदबन्धाः मोहोदयप्रकृतिविकल्पा भवन्ति ॥३२२॥ सासादन और मिश्रमें पदवृन्द सात सौ अड़सठ, सात सौ अड़सठ होते हैं। अविरतसम्यक्त्वमें चौदह सौ चालीस पदवृन्द होते हैं ।।३२२॥ सासादनमें ७६८, मिश्रमें ७६८ अविरतमें १४४० पदवृन्द हैं। ___ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'पूर्वोदितदशका' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २०४)। 2. ५, ३५० । 3. ५, ३५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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