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________________ ३८० पञ्चसंग्रह पृथिव्यादिकेषु पञ्चकायेषु एकेन्द्रियोक्तभङ्गवत् । पृथ्वीकायिके २१। २४ । २५। २६ । २७ । अप्कायिके २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । आतपोद्योतोदयरहितयोस्तेजोधातकायिकयोः प्रत्येक २१ । २४ । २५।२६ । बनस्पतिकायिके २१ । २४ । २५ । २६ । २७ । बसकायिकेषु विकल-सकलेन्द्रियोक्तनामोदयस्थानानि २१ । २५ । २६ २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । । ८ ॥ १६५ ॥ कायमार्गणाकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकाायकोंमें एकेन्द्रियोंके समान उदयस्थान होते हैं । त्रसकायिक जीवोंमें विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय जीवोंके समान नामकर्मके उदयस्थान जानना चाहिए ॥१६॥ पृथ्वी, अप और वनस्पति कायिकोंमें २१, २४, २५, २६, २७ । तेज-वायुकायिकोंमें २१, २४,२५, २६ । त्रसकायिक जीवोंके उदयस्थान--२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ । चउ-तिय मण-वचिए पंचिंदियसण्णिपजत्तभंगमिव । असचमोसवचिए तसपज्जत्तयउदयट्ठाणभंगमिव ॥१६६॥ सत्यासत्योभयानुभयमनोयोगचतुष्क-सत्यासत्योभयवचनयोगनिकेषु पंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तोक्तभङ्गवत् २६।३०।३ । न सत्यमृषावचने अनुभयभाषायोगे त्रसपर्याप्तोदयस्थानकरचनावत् २६॥३०॥३१ ॥१६॥ योगमार्गणाकी अपेक्षा सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, इन चार मनोयोगमें तथा सत्य, असत्य, उभय, इन तीन वचनयोगोंमें पंचेन्द्रियसंज्ञी पर्याप्तकके समान उनतीस, तीस और इकतीसप्रकृतिक तीन उदयस्थान जानना चाहिए। असत्यमृषावचनयोगमें त्रसपर्याप्तकोंके समान उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं ॥१६॥ ओरालियकाययोगे तसपजत्तभंगमिव । . ओरालियमिस्सकम्मे उदयट्ठाणाणि जाणिदव्वाणि ॥१६७।। सत्तेव य.अपज्जत्ता सण्णियपञ्जत्तभंगमिव । वेउव्वियकायदुगे देवाणं णारयाण भंगमिव ॥१९८॥ औदारिककाययोगे सपर्याप्तभगवदुदयस्थानानि २५।२६।२७।२८।२६।३०।३१ । औदारिकमिश्रकायनोगे अपर्याप्तजीवसमासोक्तसंक्षिपर्याप्तभङ्गवदुदयस्थानानि ज्ञातव्यानि २४०२६।२७ । कार्मणकाययोगविग्रहगतौ इदं एकविंशतिकं २१ । केवलिसमुदाते प्रतरद्वये लोकपूरणे इदं विंशतिकं स्थानम् २० । वैक्रियिककाययोगद्विके देवगति-नरकगतिकथितोदयस्थानानि । दैववैक्रियिककाययोगे २७।२८।२६। देव. वैक्रियिकमिश्रकाययोगे उदयस्थानं २५ । नारकवैक्रियिककाययोगे २७।२८।२६। तन्मिश्रकाययोगे २५ ॥१९७-१९८॥ औदारिकाययोगमें सपर्याप्तक जीवोंके समान पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृतिक सात उदयस्थान होते हैं। औदारिकमिश्रकायकोगमें सातों अपर्याप्तक जीबसमासोंके समान चौबीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । कार्मणकाययोगमें विग्रहगति-सम्बन्धी इक्कीसप्रकृतिक एक उदयस्थान जानना चाहिए। वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें देव और नारकियोंके उदयस्थानों के समान उदयस्थान जानना चाहिए ।।१६७-१६८।। विशेषार्थ-देवगतिसम्बन्धी वैक्रियिककाययोगमें सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक तीन उदयस्थान होते हैं। तथा इन्हींके वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें पच्चीसप्रकृतिक एक उदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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