SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततिका मार्गणासु मध्ये गतिषु भणितम् । अत उपरि इदानीमिन्द्रियादिमार्गणासु नामप्रकृत्युदयस्थानानि वच्यामि ॥ १११॥ चारों गति-सम्बन्धी नामकर्मके उदयस्थानोंले भङ्ग छिहत्तर सौ ग्यारह (७६११) होते हैं । अर्थात् नरकगतिसम्बन्धी ५, देवगतिसम्बन्धी ५, तिर्यग्गतिसम्बन्धी ४६६२ और मनुष्यगति सम्बन्धी २६०६ इन सबको जोड़नेपर उक्त भङ्ग आ जाते हैं। इस प्रकार चारों गतियों में नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करके अब आगे इन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें उनका वर्णन करते हैं ॥१६॥ पंचेव उदयठाणा सामण्णेइंदियस्स णायव्वा । इगि चउ पण छ सत्त य अधिया वीसा य होइ णायव्वा ॥१६२।। अवसेससव्वभंगा जाणित्तु जहाकम णेया । २१।२४।२५।२६।२७।। सामान्यकेन्द्रियस्य नामप्रकृत्युदयस्थानानि पञ्च भवन्ति । तानि कानि ? एकविंशतिकं २५ चतुविशतिकं २४ पञ्चविंशतिकं २५ षड्विंशतिकं २६ सतविंशतिकं २७ चेति ज्ञेयानि । अवशेषान् सर्वान् ज्ञात्वा यथाक्रमं ज्ञेयाः ॥१६२३॥ इन्द्रियमार्गणाकी अपेक्षा सामान्य एकेन्द्रिय जीवोंके इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छठवीस और सत्ताईसप्रकृतिक पाँच उदयस्थान होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । एकेन्द्रियसम्बन्धी इन सर्व उदयस्थानोंके सर्व भङ्ग पूर्वोक्त प्रकार यथाक्रमसे जानना चाहिए ॥१६२३।। एकेन्द्रियोंके नामकर्मसम्बन्धी उदयस्थान-२१, २४, २५, २६, २७ । इगिबीसं छब्बीसं अट्ठबीसादि जाव इगितीसं ॥१६३ ॥ वियलिंदियतिगस्सेवं उदयट्ठाणाणि छच्चेव । २१।२६।२८।२६।३०:३१। एकविंशतिकं पडविंशतिकं अष्टाविंशतिकं नवविंशतिकं त्रिंशत्कमेकत्रिंशत्कं च नामप्रकृत्युदयस्थानानि विकलवयेषु पड़ भवन्ति ॥१६३१॥ २१॥ २६ । २८ । २६ । ३० । ३१ । तीनों विकलेन्द्रियोंके इक्कीस, छब्बीस और अट्ठाईससे लेकर इकतीस तकके चार इस प्रकार छह उदयस्थान होते हैं ॥१६३६॥ विकलेन्द्रियोंके नामकर्मसम्बन्धी उदयस्थान २१, २६, २८, २९, ३०, ३१ । चउवीसं वज्जित्ता उदयट्ठाणा दसेव पंचक्खे ॥१४॥ २१२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६८ पञ्चाक्षे पञ्चन्द्रिये चतुर्विशतिकं वर्जयित्वा अपरनामप्रकृत्युदयस्थानानि दश भवन्ति २१ । २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ । । ८ । पञ्चन्द्रियस्योदयागतानि भवन्तीत्यर्थः ॥ १६४ ॥ पंचेन्द्रियोंमें चौबीसप्रकृतिक उदयस्थानको छोड़कर शेष दशस्थान होते हैं ।।१६४।। उनकी अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार है-२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ । काएसु पंचकेसु य उदयट्ठाणाणिगिदिभंगमिव । तसकाइएसु णेया विगला सयलिंदियाणभंगमिव ॥१६॥ २१।२५।२६।२७।२८।२६।३०।३१।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy