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________________ २१४ पञ्चसंग्रह देह-दीप्ति किस कर्मके उदयसे होती है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि वर्णनास कर्मके उदयसे उनके शरीरोंमें दीप्ति होती है। यहाँपर स्थिरादि तीन युगलोंके परस्पर गुणा करनेसे (२x२x२ =)८ भंग होते हैं। 'तित्थयराहादुयं एकत्तीसम्हि अवणिए पढमं । अट्ठावीसं बंधइ अपुवकरणो य अप्पमत्तो य॥३०२॥ एत्थ भंगो १ । पुणरुत्तो ण गहिओ। पूर्वोक्ते एकत्रिंशत्के ३१ तीर्थकरत्वाऽऽहारकद्वयेऽपनीते दूरीकृते प्रथममष्टाविंशतिकं स्थानं २८ अपूर्वकरणो मुनिरप्रमत्तो मुनिश्च बनाति २८ ॥३०२॥ अत्र भङ्गः १ पुनरुक्तान गृहीतः । इकतीसप्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियोंके निकाल देनेपर शेष रहीं अट्ठाईस प्रकृतियोंको अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत बाँधते हैं । यह प्रथम अट्ठाईसप्रकृतिक स्थान है ॥३०२।। विदियं अट्ठावीसं विदिउगुतीसं च तित्थयरहीणं । मिच्छादिपमत्तंता य बंधगा होंति णायव्वा ॥३०३॥ द्वितीयमष्टाविंशतिकं २८ द्वितीयकोनत्रिंशत्कं २१ तीर्थकरहीनं सत् मिथ्यादृष्टयादि-प्रमत्तान्ता बध्नन्ति बन्धका भवन्तीति ज्ञातव्यम् । तथाहि-देवगति देवगत्यानुपूये द्वे. २ पञ्चेन्द्रियं १ वैक्रियिक-तेजस-कार्मणत्रिक ३ वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गं समचतुरस्रं १ त्रस-वर्णागुरुलघुचतुष्कं १२ स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-यशोऽयशसां युगलानां मध्ये एकतरं १०१।१ सुस्वरः १ सुभगं १ प्रशस्तविहायोगतिः १ आदेयं १ निर्माणं १ चेत्यष्टाविशतिकनामप्रकृतिबन्धस्थानस्य मिथ्यादृष्टयादि-प्रमत्तान्ता बन्धका भवन्ति २८ ॥३०३॥ यहाँपर भंग एक ही है। किन्तु वह पुनरुक्त है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया गया है। द्वितीय उनतीस प्रकृतिक स्थानमेंसे तीर्थङ्कर प्रकृतिके कम कर देनेपर द्वितीय अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान हो जाता है । इस स्थानके बन्धक मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तकके जीव होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३०३।। कुदो एवं, उवरिजाणं अप्पमत्तादीणं अथिर-असुह-अजसकित्तीणं बंधाभावादो। भंगा ८ । स्थिरादीनि २०२२ परस्परगुणितानि ८ भङ्गाः । कुत एवं? अप्रमत्तादीनां उपरिजानां गुणस्थानानां अस्थिराशुभायशस्कोर्तीनां बन्धाभावात् । __ ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयतादि उपरितनगुणस्थानवर्ती जीवोंके अस्थिर, अशुभ और अयशःकीत्ति, इन तीनों प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है । यहाँपर शेष तीन युगलोंके गुणा करनेसे आठ भंग होते हैं। *बंधति जसं एगं अपुव्व अणियट्टि सुहुमा य । तेरे णव चउ पणयं बंध-वियप्पा हवंति णामस्स ॥३०४॥ एवं ठाणबंधो समत्तो। 1. सं० पञ्चसं० ४, १८६। 2. ४,१८६ । ३. ४ 'अप्रमतादीनां' इत्यादिगद्यभागः (पृ० १२७) ___4. ४,१८८। १. पट्खं० जीव० चू० स्थान० सू० १०४-१०५। २. पटखं० जीव० चू० स्थान० सू० १०६.१०७ । ३. पर्ख० जीव० चू० स्थान० सू० १०८-१०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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