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________________ २० पञ्चसंग्रह सं० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें अमितगतिने जिन विशिष्ट विषयोंकी चर्चा की है उनका संस्कृतटीकाकारने यथास्थान निर्देश कर उन श्लोकोंको भी अधिकांशमें उद्धृत कर दिया है। इसके लिए देखिएगा० १०२,१०३-१०४,१४०,१७८-१७९,२१५,२२६,२८८,३०४,३६३-३९४,३९५,४६६,४८९,४९५, ५०२,५१४-५१५ और ५१६-५१९की संस्कृतटीका और हिन्दी अनुवाद । इसी चौथे प्रकरणमें स्थितिबन्धका उपसंहार करते हुए आयुर्बन्ध-सम्बन्धी अन्य कितनी ही बातोंका वर्णन सं० पञ्चसंग्रहकारने किया है । ( इसके लिए देखिए श्लो० २५८-२६०) प्रा० पञ्चसंग्रहकी गा० ४६६ में शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागबन्धके स्वामियोंका वर्णन किया गया है। गाथा-पठित 'शेष' पदसे कितनी और कौन-सी प्रकृतियां प्रकृतमें ग्राह्य है, इसका भी उहापोह अमितगतिने श्लो० २९० से २९२ तक किया है, जिसकी चर्चा उक्त गाथाके विशेषार्थमें इन श्लोकोंके उद्धरणके साथ कर दी गई है। प्रा० पञ्चसंग्रहके पांचवें प्रकरणमें समुद्घातगत केवलीको अपर्याप्त मानकर नामकर्मके बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थानोंका वर्णन नहीं किया गया है। किन्तु अमितगतिने ( पृष्ठ १७९ पर ) 'उदये विशतिः' श्लोकको आदि लेकर 'प्रत्रकत्रिशतं स्थानं' श्लोक तक समुद्घातगत केवलोके सर्व उदयस्थानोंका वर्णन किया है । ( देखो, प्रकरण ५, श्लोक ५७४ से ५८३ तक ) ३. व्युत्क्रम वर्णन प्रा० पञ्चसंग्रहकारने प्रथम प्रकरणका आरम्भ करते हए जिन बीस प्ररूपणाओंके कथनकी प्रतिज्ञा की है, उनका वर्णन भी उन्होंने अपने उसी क्रमसे किया है। तदनुसार सं० पञ्चसंग्रहकारको भी इसी क्रमसे चाहिए था। गो. जीवकाण्डमें भी इसी क्रमको अपनाया गया है। किन्तु अमितगतिने ऐसा नहीं किया। उन्होंने बीस प्ररूपणाओंकी संख्या गिनाते हुए ग्रन्थके आरम्भमें (श्लो० नं० ११ में ) प्राणोंको पर्याप्तियोंसे पूर्व और संज्ञाको प्राणोंके पश्चात् न गिनाकर उपयोगके पश्चात् गिनाया और उन संज्ञाओंका वर्णन भी क्रम-प्राप्त पांचवें स्थानपर न करके अपने क्रमके अनुसार बीसवें स्थानपर किया है। इस क्रम-भंगका क्या कारण या रहस्य रहा है। वे ही जानें । प्राकृत पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणको अन्तिम (२००-२०६) सात गाथाओंमें वर्णित विषयका वर्णन भी संस्कृत पञ्चसंग्रहकारको प्रकरणके अन्तमें ही करना चाहिए था । पर उन्होंने वैसा न करके गाथाङ्क २०० का विषय श्लोकाङ्क ३२७ में, गा० २०१ का श्लो० ३०१ में, गा० २०२ का श्लो० २९४ में, गा० २०३ का श्लो० २९५ में, गा० २०४ का श्लो० २९६ में और गा० २०५ का श्लो० ३३९ में किया है। प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें लेश्याओंका समग्र वर्णन क्रम-प्राप्त लेश्या मार्गणामें न करके कितनी ही बातोंका वर्णन बीसों प्ररूपणाओंका वर्णन कर देने के बाद प्रकरणका उपसंहार करते हुए किया है। प्रा० पञ्चसंग्रहकारका यह क्रम-भङ्ग कुछ खटकता-सा है। सं० पञ्चसंग्रहकारको भी सम्भवतः यह बात खटकी और उन्होंने उक्त दोनों स्थलोंका वर्णन एक ही क्रम-प्राप्त स्थान लेश्यामार्गणाके भीतर कर दिया। अतएव मूलग्रन्थको देखते हुए यह व्युत्क्रम-वर्णन भी अमितगतिकी बुद्धिमत्ताका सूचक हो गया है। (देखो प्रा० पञ्चसंग्रह गा० १४२-१५३ तथा १८३-१९२ और सं० पञ्चसंग्रह श्लो० २५३-२८२) प्रा० पञ्चसंग्रहके इसी प्रथम प्रकरणमें कौन-सा संपम किस गुणस्थानमें या किस गुणस्थान तक होता है, इस बातका वर्णन गा० १९५ में किया गया है । अमितगतिको यह क्रम-भङ्ग भी खटका और उन्होंने इस विषयका वर्णन भी संयममार्गणामें यथास्थान ही कर दिया। प्रा० पञ्चसंग्रहके तीसरे प्रकरणकी गा० ४४ में वर्णित विषयको उदीरणा वर्णन करनेके प्रारम्भमें न कहकर अन्तमें किया है । ( देखो सं० पञ्चसंग्रह ३, ६० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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