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________________ प्रस्तावना इस टिप्पणीके देने में सम्पादक-महोदयको उक्त श्लोकके नीचे दी गई उक्त पंक्ति ही प्रेरक हुई है और उस पंक्तिको उन्होंने सं० पञ्चसंग्रहके रचयिता आ० अमितगतिकी ही लिखी समझ ली है। पर वास स्थिति इसके प्रतिकूल है । यथार्थ में यह पंक्ति किसी पुराने पाठकने उक्त अशुद्ध पाठको शुद्ध मान करके और उस पाठपर चिह्न लगाकर टिप्पणीके तौरपर प्रतिके हासियेपर लिखी होगी। कालान्तरमें उस प्रतिकी प्रतिलिपि करनेवाले लेखकने उसे मूलका अंश समझकर उसे उक्त श्लोकके पश्चात् ही लिख दिया । इस प्रकार मूलपाठ 'आबाधो नास्ति' इस पदकी (आबाधा + ऊना + अस्ति ) सन्धिको नहीं समझ सकनेके कारण जैसी भूल पुराने पाठकसे हो गई थी, ठीक वैसी ही भूल अशद्ध पाठ और उक्त पंवितके सामने होनेपर इसके सम्पादकसे भी हो गई है और उसीके फलस्वरूप उन्होंने भी उक्त भ्रमोत्पादक टिप्पणी दे दी है। इस सारे कथनका निष्कर्ष यह है कि इस स्थलपर उक्त पंक्ति न तो सं० पञ्चसंग्रहका अंग है और न उसे वहाँपर होना चाहिए। फिर उसके आधारपर दी गई टिप्पणीकी व्यर्थता तो स्वत: सिद्ध हो जाती है । पञ्चसंग्रहादि कर्मग्रन्थ और सिद्धान्तग्रन्थ सभी उक्त विषयमें एक मत हैं । २. पल्लवित वैशिष्ट्य प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें ज्ञान मार्गणाके भीतर अवधिज्ञानका वर्णन केवल दो गाथाओंमें किया गया है। पर अमितगतिने उसे पर्याप्त पल्लवित किया है और षटखण्डागम तथा धवला टीकाके आधारसे चार श्लोकोंके द्वारा कितनी ही नवीन बातोंकी सूचना की है। जैसे-तीर्थङ्कर, देव और नारकियोंके अवधिज्ञान सर्वाङ्गसे उत्पन्न होता है, किन्तु शेष जीवोंके यदि वे मिथ्यादष्टि हैं तो नाभिके नीचे सरट, मकंट काक, खर आदि अशभ चिह्नोंसे प्रकट होता है और यदि वे सम्यग्दष्टि हैं, जो नाभिके ऊपर शंख, पदा, श्रीवत्स आदि शुभ चिह्नोंसे उत्पन्न होता है । ( देखो सं० पञ्चसंग्रह, प्रथम प्रकरण, श्लोक २२३-२२५ ) इसी प्रकारका पल्लवित वैशिष्टय संस्कृत पञ्चसंग्रहमें अनेक स्थलोंपर दष्टिगोचर होता है, जिसकी तालिका इस प्रकार है प्रथम जीवसमास प्रकरणमें अनन्तके नौ भेद ( श्लोक ६-७ ), ग्यारह प्रतिमाएँ ( श्लो० २९३२), वर्ग, वर्गणा और स्पर्धक ( श्लो० ४५-४६ ), गुणस्थानोंमें औदार्यकादि भाव ( श्लो० ५२-५८), गुणस्थानोंमें जीवोंकी संख्या आदि ( श्लो० ५९-९१), चतुर्गतिनिगोद ( श्लो० १११ ), स्थावरकायिक जीवोंके आकार ( श्लो० १५४ ) त्रसनालीके बाहिर त्रसोंकी उपस्थिति (श्लो० ११६ ) तेजस्कायिक और वायुकायिक आदि जीवोंकी विक्रिया आदि ( श्लो० १८१-१८५ ), द्रव्य-भाववेदकी अपेक्षा नौ भेद (श्लो० १९३-१९४), तीनों वेदवालोंके चिह्न-विशेष ( श्लो० १९५-१९८), मति, श्रुत अवधिज्ञानके भेद-प्रभेद ( श्लो० २१४-२२६ ), कषाय, नोकषाय और क्षायोपशमिकचारित्र ( श्लो० २३४-२३७), द्रव्य-भावलेश्याओंका वर्णन ( श्लो० २५४-२६३ ), पञ्च लब्धियोंका विस्तृत स्वरूप ( श्लो० २८६ से २८९ तक तथा इनके मध्यवर्ती विस्तृत गद्य भाग ) और तीन सौ तिरेसठ पाखण्डवादियोंका विस्तृत विवेचन ( श्लो० ३०९-३१६ तथा इनके बीचका गद्य भाग ) किया गया है । प्रा० पंचसंग्रहमें चारों संज्ञाओंका केवल स्वरूप ही कहा गया है। किन्तु अमितगतिने प्रकरणोपयोगी होनेसे स्वरूपके साथ ही यह भी बतलाया है कि किस गुणस्थान तक कौन-सी संज्ञा होती है। (देखो संक पञ्चसंग्रह प्रक० १, श्लो० ३४५-३४७) प्रा० पञ्चसंग्रहके दूसरे प्रकरणमें उद्वेलना-प्रकृतियोंकी केवल संख्या ही गिनाई गई है। किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने साथमें उद्वेलनाका लक्षण भी दे दिया है, जो कि प्रकरणको देखते हुए बहुत उपयोगी है। प्रा० पञ्चसंग्रहके तीसरे प्रकरण में चूलिकाधिकारके भीतर नौ प्रश्नोंका उत्तर प्रकृतियोंके नाममात्र गिनाकर दिया गया है । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने इस स्थलपर गद्य और पद्य भागके द्वारा प्रत्येक प्रश्नका सहेतुक विस्तृत वर्णन किया है, जो कि अभ्यासी व्यक्तिके लिए अत्युपयोगी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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