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पञ्चसंग्रह
२. पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें गुणस्थानों की प्ररूपणाके पश्चात् जीवसमासोंका निरूपण करते हुए अमितगति कहते हैं-
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चतुर्दशसु पञ्चाचः पर्याप्तस्तत्र वर्तते । एतच्छास्त्रमतेनाचे गुणस्थानद्वयेऽपरे ॥ ६६॥ पूर्णः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी चतुर्दशसु वर्तते । सिद्धान्तमततो मिथ्यादृष्टौ सर्वे गुणे परे ॥ ६७॥
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अर्थात् इस शास्त्र के मतसे आदिके दो गुणस्थानोंमें सभी जीवसमास होते हैं । किन्तु सिद्धान्तके मत से | केवल मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें ही सर्वजीवसमास होते हैं ।
३. दूसरे प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामके प्रकरण में प्रा० पञ्चसंग्रहकारने बन्धयोग्य प्रकृतियोंकी संख्या १२० और उदय योग्य प्रकृतियोंकी संख्या १२२ बतलाई है और यह मान्यता दि० और वे सभी कर्मविषयक ग्रन्थोंके अनुरूप ही है। पर इस स्थलपर सं० पञ्चसंग्रहकार उक्त मान्यतानुसार वन्य और उदयके योग्य प्रकृतियोंकी संख्या बतलानेके अनन्तर लिखते हैं
मतेनापरसूरीणां सर्वाः प्रकृतयोऽङ्गिनाम् । बन्धोद्र्यौ प्रपद्यन्ते स्वहेतुं प्राप्य सर्वदा ॥
कुछ आचार्योंके भतसे सभी अर्थात् १४८ प्रकृतियां ही अपने-अपने निमित्तको पाकर बन्ध और उदयको प्राप्त होती हैं ।
४. सं० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरण में स्थितिबन्धका वर्णन करते हुए श्लोका २०८ के नीचे एक गद्य भाग इस प्रकारका मुद्रित है
"पञ्चसंग्रहाभिप्रायेणेदं सिद्धान्ताभिप्रायेण पुनरायुषोऽयाबाधो नास्ति; स्थितिः कर्मनिषेचनम् " ।
प्रयत्न करनेपर भी मैं इस पंक्तिके द्वारा सूचित किये गये पंचसंग्रह और सिद्धान्तके अभिप्राय भेदको नहीं समझ सका । यहाँ प्रकरण यह है कि आयुकर्मके सिवाय शेष सात कर्मोंका जो स्थितिबन्ध हुआ है, उसमें से उनका आबाधा काल घटाकर जो स्थितिबन्ध शेष रहता है, उतना उनका कर्म-निषेककाल होता है किन्तु आयुकर्मका जितना स्थितिबन्ध होता है, उतना ही कर्म निषेककाल होता है (देखो प्रा० पंचसंग्रह प्रकरण चौथेकी गा० ३९५ ) । इसी गाथाके आधारपर जो श्लोक इस स्थलपर अमितगतिने दिया है, वह भी गाथाके छायानुवाद रूप ही है । वह गाथा और श्लोक इस प्रकार हैं
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गाया - आवाधूण हिदी कम्मणिसेओ होइ सत्तकम्माणं ।
ठिदिमेव णिया सच्चा कम्मणिसेओ य भउस्स ॥ ३६५॥ श्लोक - आवाधो नास्ति सप्तानां स्थितिः कर्मनिषेचनम् । कर्मणामायुषो वाचि स्थितिरेव निजा पुनः ॥२०८॥
गाथाके अनुसार ही पलोकका अर्थ भी है, फिर यह विचारणीय बात है कि इसी श्लोकके नीचे मत भेदको सूचक उपर्युक्त पंक्ति दी हुई है। माणिकचन्द प्रन्थमालासे प्रकाशित पञ्चसंग्रह में जो उक्त लोक मुद्रित है उसपर गौर करनेसे पाठककी दृष्टि उसके प्रथम चरण और उसपर दी गई टिप्पणीकी ओर जानेपर इस समस्याका समाधान सहजमें हो जाता है । प्रथम चरण इस प्रकार मुद्रित है
"आवाधो नास्ति सप्तानां"
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ज्ञात होता है कि इसके सम्पादकको आदर्श प्रतिमें भी ऐसा ही पाठ उपलब्ध हुआ और इसीलिए इसके नीचे की पंक्तिको प्रमाण मानकर उन्होंने भी एक टिप्पणी इसपर दे दी, जो इस प्रकार है"अपर सिद्धान्ताभिप्रायेण सप्तकर्मणामाबाधो नास्ति । तर्हि किमस्ति ? कर्मनिषेचनम् । पञ्चसंग्रहाभिप्रायेण सप्तानां कर्मणामायाधारित आयुष्कर्मणोऽपि ज्ञातव्यम् ।”
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