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________________ शतक २८७ पाँच प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नियमसे अनिवृत्ति बादरसाम्परायसंयत करता है। हास्यादि छह नोकषाय, निद्रा, प्रचला और तीर्थकर; इन नौ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि करता है, ऐसा जानना चाहिए ॥५०५-५०७॥ [मूलगा०६५] 'तेरह बहुप्पएसो सम्मो मिच्छो व कुणइ पयडीओ। आहारमप्पमत्तो सेस पएसेसुक्कडो मिच्छो' ॥५०८॥ १३१२।६६ सादेदर दो आऊ देवगइचउक्क आइसंठाणं । आदेज सुभग सुस्सर पसस्थगइ आइसंघयणं ॥५०॥ एत्थ देव-मणुसाऊ। त्रयोदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिा करोति बध्नाति । ताः का इति चेदाहअसातावेदनीयं १ मनुष्य-देवायुषी द्वे २ देवगति-तदानुपूर्वि-वैक्रियिक-तदङ्गोपाङ्गचतुष्कं ४ समचतुरस्त्रसंस्थानं २ सुभग-सुस्वर-प्रशस्तविहायोगतित्रिकं ३ वज्रवृषभनाराचसंहननं १ चेति त्रयोदशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिा करोति १३। आहारकद्वयस्याप्रमत्तो मुनिरुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति २। इति चतुःपञ्चाशत्प्रकृतीनामुस्कृष्ट प्रदेशबन्धस्वामित्वं कथितम् । शेषाणां स्त्यानगृद्धित्रिक ३ मिथ्यात्व १ अनन्तानुबन्धिचतुष्क ४ स्त्री-नपुंसकवेद २ नारक-तिर्यगायुद्धय २ नरक-तिर्यग्मनुष्यगतित्रय ३ पञ्चैकेन्द्रियादिजाति ५ औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरत्रय ३ न्यग्रोधपरिमण्डलादिसंस्थानपञ्चक५वज्रनाराचादिसंहननपञ्चक ५ औदारिकाङ्गोपाङ्ग १ वर्णचतुष्क ४ नरक-तिर्यग्मनुष्यानुपूर्व्यत्रयागुरुलधूपघातपरघातोच्छासातपोद्योताप्रशस्तविहायोगति-बस-स्थावर-बादर-सूचम-पर्याप्तापर्याप्त-प्रत्येक-साधारण-स्थिरास्थिर-शुभाशुभ-दुर्भग-दुःस्वरानादेयायशोनिर्माण-नीचगोत्राणां षषष्टः प्रकृतीनां ६६ उत्कृष्टप्रदेशबन्धं मिध्यादृष्टिरेव करोति । एवमुक्तानुक्त १२० प्रकृतीनामुस्कृष्टप्रदेशबन्धकारणमुस्कृष्टयोगादि प्रागुक्तमेव ज्ञेयम् । अत्र मिथ्यात्वं मिथ्यादृष्टौ व्युच्छित्तिद्रव्यमुत्कृष्टमुक्तम् । तथाऽनन्तानुबन्धिनः सासादने किमिति नोच्यते ? तन्न: मिथ्यात्वद्रव्यस्य देशघातिनामेव स्वामित्वात् ॥५०८-५०६॥ ( वक्ष्यमाण) तेरह प्रकृतियोंका उत्कृष्टप्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता है। आहारकद्विकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तसंयत करता है। शेष ६६ प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध उत्कृष्ट योगवाला मिथ्यादृष्टि जीव करता है ॥५०८॥ प्रकृतियाँ १३।२।६६ अब भाष्यगाथाकार उक्त तेरह प्रकृतियोंको गिनाते हैं असातावेदनीय, दो आयु, देवगतिचतुष्क, आदिका संस्थान, आदेय, सुभग, सुस्वर, प्रशस्तविहायोगति और प्रथम संहनन; इन तेरह प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यक्त्त्वी जीव भी करते हैं और मिथ्यात्वी जीव भी करते हैं ॥५०६॥ यहाँपर दो आयुसे देवायु और मनुष्यायुका अभिप्राय है। अब उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्रीविशेषका निरूपण करते हैं[मूलगा०६६] उक्कस्सजोगसण्णी पज्जत्तो पयडिबंधमप्पयरं । कुणइ पदेसुक्कस्सं जहण्णय जाण विवरीयं ॥५१०॥ 1. सं० पञ्चसं० ४, ३५८-३६० । 2. ४, ३६१ । १. शतक० ६६ । गो० क० २१४ अर्धसमता । २. शतक० १७ । गो० क० २१०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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