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________________ प्रस्तावना दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंका रचना-काल प्राकृत सभाष्य पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर दि० सम्प्रदायमें दो संस्कृत पञ्चसंग्रह रचे गये हैंएकके रचयिता हैं अनेक ग्रंथोंके निर्माता आ० अमितगति और दूसरेके निर्माता हैं श्रीपालसुत उड्डा । इनमें पहलेवाला पञ्चसंग्रह माणिकचंद ग्रन्थमालासे सन् १९२७ में प्रकाशित हो चुका है। आ. अमितगतिका समय निश्चित है। उन्होंने अपने इस सं० पञ्चसंग्रहकी रचना मसूतिकापुरमें वि० सं० १०७३ में की है, यह बात उसमें दी गई अन्तिम प्रशस्तिके इस श्लोकसे सिद्ध है त्रिसप्तत्यधिकेदानां सहस्र शकविद्विषः । मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्र मनोरमम् ॥६॥ प्रा० पञ्चसंग्रहके साथ अमितगतिके इस सं० पञ्चसंग्रहको रखकर तुलना करनेपर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि उन्होंने प्राकृत पञ्चसंग्रहका ही संस्कृत पद्यानुवाद किया है। पर आश्चर्यकी बात तो यह है कि उन्होंने समग्र ग्रन्थ भरमें कहीं ऐसा एक भी संकेत नहीं किया, कि जिससे उक्त बात ज्ञात हो सके। इसके विपरीत उन्होंने ग्रन्थके प्रत्येक प्रकरणके अन्तमें इलेषरूपसे अपने नामको अवश्य व्यक्त किया है। यथा-- , सोऽश्नुतेऽमितगतिः शिवास्पदम् । (१,३५३) २ याति स भव्योऽमितगतिरष्टम् ॥ (२,४८) ३ ज्ञानात्मकं सोऽमितगस्युपैति । (३,१०६) ४ सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् । (४,३७५) ५ सोऽस्तु तेऽमितगतिः शिवास्पदम् । (५,४८४) इस सबके पश्चात् प्रशस्तिमें तो स्पष्ट ही कहा है कि मसूतिकापुरमें इस शास्त्रको रचना हुई है। आ० अमितगति-द्वारा रचे गये अन्य ग्रन्थोंमें भी यही बात दृष्टिगोचर होती है। क्या अपने नामप्रसिद्धिके व्यामोहमें दूसरेके नामका अपलाप पाप नहीं है ? यह ठीक है कि प्रा० पञ्चसंग्रहके रचयिता अज्ञात आचार्य रहे हैं। परन्तु यथार्थ स्थितिसे अपने पाठकोंको परिचित रखनेके लिए कमसे कम उन्हें प्राकृत पञ्चसंग्रहके अस्तित्वका और उसके आधारपर अपनी रचना रचनेका उल्लेख तो करना ही चाहिए था। यही गनीमतकी बात है कि उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ और उसके प्रकरणोंका नाम नहीं बदला और प्राकृत पञ्चसंग्रहके समान वे ही नाम अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहमें दिये । यह संस्कृत पञ्चसंग्रह लगभग २५०० श्लोक प्रमाण है। दूसरे संस्कृत पञ्चसंग्रहको एक मात्र प्रति ईडरके भण्डारसे ही सर्वप्रथम प्राप्त हुई है। इसके रचयिता श्रीपाल-सुत डड्डा हैं। इन्होंने अपनी रचनामें तीन स्थलोंपर जो परिचयात्मक पद्य दिये हैं, उनमेंसे दो तो बिलकुल शब्दशः समान हैं । एकके उत्तरार्धमें कुछ विभिन्नता है। वे दोनों पद्य इस प्रका १. श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते । श्रीपालसुतगड्ढेन स्फुटार्थः पम्चसंग्रहः ॥ ४,३३॥ ५,४२८ २. श्रीचित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते ।। श्रीपालसुतण्ड्ढेन स्फुटः प्रकृतिसंग्रहः ॥ (५,८५) (मुद्रित पृ० ७४२) इन उपर्युक्त दोनों ही पद्योंमें रचयिताने अपना संक्षिप्त परिचय दिया है, उससे इतना ही विदित होता है कि चित्रकूट ( सम्भवतः चित्तौरगढ़) के निवासी, प्राग्वाट (पोरवाड़ या परवार ) जातीय वैश्य श्रीश्रीपालके सुपुत्र डड्डाने इस सं० पञ्चसंग्रहकी रचना की है। इतने मात्र संक्षिप्त परिचयसे न उनके समयपर प्रकाश पड़ता है और न उनके गुरु आदिकी परम्परा पर ही। परन्तु पञ्चसंग्रहको संस्कृत टीकाका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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