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पञ्चसंग्रह
दिखती है। साधनाभावसे हम कोई निर्णय करनेमें असमर्थ हैं । अनुमानतः विक्रमको दशवीं शताब्दीसे पूर्व में ही इसका रचा जाना अधिक संभव है।
वृत्तिकारने अपनी रचनामें कसायपाहुडकी चूणि और धवला टीकाकी शैलीका अनुसरण किया है। विषय-प्रतिपादनको देखते हए यह निःसन्देह कहा जा सकता है कि वे जैनसिद्धान्तके अच्छे वेत्ता रहे हैं। उनके द्वारा दी गई अनेक परिभाषाएं अपूर्व है, क्योंकि उनका अन्यत्र दर्शन नहीं होता है। वृत्तिकारने सभी गाथाओंपर वृत्ति नहीं लिखी है, किन्तु चूर्णिसूत्रकार यतिवृषभके समान उन्हें जिस गाथापर कुछ कहना अभीष्ट हआ, उसीपर ही उन्होंने लिखा है । यतिवृषभके समान ही उन्होंने गाथाओंकी समुत्कीर्तना कर 'एत्तो सधपयडी बन्धवुच्छेदो कादवो भवदि । तं जहां-इत्यादि वाक्योंको लिखा है।
प्राकृतवृत्तिके आदिमें ग्रन्थको उत्थानिकाके रूपमें जो सन्दर्भ दिया हुआ है, वह धवला-जयधवलाकी उत्थानिकाका अनुकरण करते हुए भी अपनी बहुत कुछ विशेषता रखता है। पर इसके विषयमें एक बात खासतौरसे विचारणीय है और वह यह कि जहाँ धवला या जयधवलाकार उस प्रकारको उत्थानिकाके अन्तमें प्रतिपाद्य -विवक्षित ग्रन्थका नामोल्लेख करके उसके नामकी सार्थकता आदिका निरूपण करते हैं, वहाँ इस प्राकृतवृत्तिमें पञ्चसंग्रहका कोई नामोल्लेख आदि नहीं पाया जाता । प्रत्युत 'आराधना'का नाम पाया जाता है । वह इस प्रकार है
__ 'तत्थ गुणणामं आराहणा इदि किं कारणं ? जेण भाराधिज्जते अणभा दंसण-णाण-चरित्ततवाणि त्ति ?'
इस उद्धरणमें स्पष्टरूपसे 'आराधना'का नाम दिया गया है और उसकी निरुक्तिके द्वारा यह भी बतला दिया गया है कि जिसके द्वारा दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपकी आराधना की जाती है उसे आराधना कहते हैं।
इस उल्लेखको देखते हुए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इसके पूर्वका और आगेका समस्त उत्थानिका-सन्दर्भ 'भगवती आराधना'की उस प्राकृत टीकाका है, जिसका उल्लेख अपराजित सूरिने अपनी
टीकामें अनेक वार किया है। दुग्यिसे आज वह उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसे कम सौभाग्य नहीं माना जा सकता कि इस रूपमें उसको 'बानगी' या 'नमूना हमें देखनेको मिल गया है।
भगवती आराधनामें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों हो आराधनाओंका वर्णन किया गया है, यह उसके मंगलाचरण एवं उसके आगेवाली गाथासे ही सिद्ध एवं सर्वविदित है। भ० आराधनाकी वे दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं
सिद्धे जयप्पसिद्ध चउविह आराहणा फलं पत्ते । वंदित्ता अरहंते वोच्छं आराहणा कमसो ॥१॥ उज्जोवणमुज्झवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं ।
दसण-णाण-चरित्त-तवाणमाराहणा भणिया ॥२॥ ऐसा ज्ञात होता है कि पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि करनेवाले किसी लेखकको उक्त भ० आराधनाकी प्राकृत टीकाका उक्त अंश उपलब्ध हुआ और उसे उसने लिखकर उसके आगे सवृत्ति पञ्चसंग्रहकी प्रतिलिपि करना प्रारम्भ कर दिया। जिससे वे दोनों एक ही ग्रन्थके अंश समझे जाने लगे। यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि अभी तक प्राकृत वृत्तिकी एक ही प्रति मिली है। यदि आगे किसी अन्य भण्डारसे कोई दूसरी प्रति उपलब्ध होगी, तो उससे उक्त बातपर और भी अधिक प्रकाश पड़ सकेगा।
१. देखो प्रस्तुत ग्रन्थके पृष्ट ५६६ आदि । २. देखो प्रस्तुत ग्रन्थका पृष्ठ ५४३ ।
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