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________________ प्रस्तावना आउक्कस्स पदेसस्स छच्च मोहस्स णव दु ठाणाणि । सेसाणि तणुकसाभो बंधइ उक्कोसगे जोगे ॥४,५०२॥ यद्यपि शतकचूणिके निर्माणका काल अभी तक निश्चित नहीं है, तथापि वह चूणि-युगमें ही रची गई है, इतना तो निश्चित है और इसी आधारपरसे उसे कम-से-कम विक्रमकी सातवीं शताब्दीसे पूर्वकी तो मान ही सकते हैं। उक्त आधारोंके बलपर इतना कहा जा सकता है कि सभाष्य प्राकृत पञ्चसंग्रहकी रचना विक्रमकी पांचवीं और आठवीं शताब्दीके मध्यवर्ती कालमें हई है प्राकृतवृत्तिगत पञ्चसंग्रह। प्रस्तुत ग्रन्यमें सभाष्य पञ्चसंग्रहके पश्चात् प्राकृत दृत्ति-सहित पञ्चसंग्रह भी मुद्रित है। प्रकरणोंके नाम वे ही हैं, जिनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। किन्तु उनके क्रममें अन्तर है और गाथा-संख्यामें भी। गाथा-संख्याका अन्तर पहले बतला आये हैं । क्रमका अन्तर यह है कि इसमें पहले प्रकृति समुत्कीर्तन, पुनः कर्मस्तव और तदनन्तर जीवसमास प्रकरण निबद्ध किये गये मिलते हैं। अन्तिम दोनों प्रकरण दोनोंमें समानरूपसे चौथे और पांचवें स्थानपर निबद्ध हैं। तीसरा अन्तर अन्तिम प्रकरणके मंगलाचरणका है, जब कि प्रथम चार प्रकरणोंकी मंगल-गाथाएं समान हैं। उपर्युक्त स्थितिको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्राकृत-दृत्तिकारको उक्त प्रकरण स्वतन्त्र रूपसे ही अपने स्वतन्त्र पाठोंके साथ प्राप्त हुए और उन्होंने पञ्चसंग्रहके अन्यत्र प्रसिद्ध बध्य, बन्धेश, बन्धक, बन्धकारण और बन्धभेद इन पाँच द्वारोंके अनुसार उनका संकलन कर व्याख्या करना उचित समझा है। गाथाओंके संकलनको देखते हुए ऐसा लगता है कि वृत्तिकारको सभाष्य पञ्चसंग्रह नहीं उपलब्ध हआ और इसीलिए उन्होंने प्राचीन चूणियोंको शैलीमें ही अपनी प्राकृत वृत्तिकी रचना की है। प्राकृत वृत्ति और वृत्तिकार इस वृत्तिके रचयिता श्री पद्मनन्दि मुनि हैं, यह बात शतक नामक चौथे प्रकरणके मध्यमें दी गई गाथाओंसे ज्ञात होती है। वे गाथाएं इस प्रकार हैं जह जिणवरेहिं कहियं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्म । आयरियकमेण पुणो जह गंगणइपवाहुब्व ॥ तह पउमणंदिमुणिणा रइयं भवियाण बोहणट्राए । श्रोधादेसेण य पयढीणं बंधसामित्तं ॥ छ उमत्थयाय रइयं जं इस्थ हविज पवयणविरुद्धं । तं पवयणाइकुसला सोहंतु मुणी पयत्तेण ॥ इन गाथाओंका भाव यह है कि जो कर्म-प्रकृतियोंका बन्धस्वामित्व जिनेन्द्रदेवने कहा, जिसे गणधर देवोंने गूंथा और जो गंगानदीके प्रवाहके समान आचार्य-परम्परासे चला आ रहा है, उसे मुझ पद्मनन्दी मुनिने भव्योंके प्रबोधनार्थ रचा है। इसमें मेरे छद्मस्थ होने के कारण जो कुछ भी प्रवचन-विरुद्ध कहा गया हो, उसे प्रवचनमें कुशल मुनिजन सावधानीके साथ शुद्ध करें। इस उल्लेखके अतिरिक्त उक्त वृत्तिमें अन्यत्र कोई दूसरा उल्लेख नहीं मिलता है, जिससे कि उसके रचयिताकी आचार्य-परम्परा आदिके विषयमें कुछ विशेष जाना जा सके। हां, वृत्तिमें उद्धृत पद्योंके आधारपर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे अकलङ्कदेवसे पीछे हुए हैं; क्योंकि उनके लघीयस्त्रयकी 'ज्ञानं प्रमाणमित्याहः' इत्यादि कारिका पाई जाती है। पद्मनन्दि नामके अनेक मुनि हुए हैं। उनमेंसे किसने इस प्राकृतवृत्तिको रचा, यह यद्यपि निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है, तथापि जम्बुद्वीपपण्णत्तीके रचयिता पद्मनन्दिकी ही अधिक सम्भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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