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________________ ४२ पञ्चसंग्रह प्रभाव श्रीडा पर रहा है, यह बात उनके द्वारा दी गई संदृष्टियोंसे अवश्य हृदयपर अंकित होती है। संस्कृतटीकाकारने अपनी रचनाका काल विक्रम सं० १६२० दिया है अतः इसके बाद ही इस दूसरे सं० पञ्चसंग्रहकी रचना हुई है। प्राप्त प्रतिकी स्थिति और लिखावट आदि देखते हुए वह ३०० वर्ष प्राचीन प्रतीत होती है-यह बात हम प्रति-परिचयमें बतला आये हैं अतः इसके विक्रमकी सत्तरहवीं शताब्दी में रचे जानेका अनुमान होता है । दि० परम्परामें पं० आशाधरजी, पं० मेधावी और पं० राजमल्लजीके पश्चात् संस्कृत भाषामें ग्रन्थरचना करनेवाले सम्भवतः ये अन्तिम विद्वान् प्रतीत होते हैं । ये गृहस्थ थे, यह बात अपनी जाति और पिताके नामोल्लेखसे ही सिद्ध है। ये प्रतिभाशाली एवं कर्मशास्त्रके अच्छे अधिकारी विद्वान् रहे हैं, ऐसा उनकी रचनाका अध्ययन करनेपर सहज ही अनुभव होता है। अमितगतिके सं० पञ्चसंग्रहके होते हुए इन्होंने क्यों पुनः सं० पञ्चसंग्रहकी रचना की, यह बात पहले इसी प्रस्तावनामें स्पष्ट को जा चुकी है। यह सं० पञ्चसंग्रह लगभग २००० श्लोक-प्रमाण है। प्रा० पञ्चसंग्रहकी संस्कृत टीका प्राकृत पञ्चसंग्रहके ऊपर जो संस्कृत टीका उपलब्ध हुई है यह प्रस्तुत ग्रन्थमें दी गई है। दुर्भाग्यसे इसका प्रारम्भिक अंश उपलब्ध नहीं हो सका और न दूसरी कोई प्रति ही मिल सकी, जिससे कि उस खण्डित अंशकी पूर्ति की जा सकती। यद्यपि यह टीका तीसरे प्रकरणकी ४०वीं माथातक त्रुटित है, तथापि उसके भी विनाशके भयसे व्याकुल होकर एवं श्रुत-रक्षाकी भावनासे प्रेरित होकर ज्ञानपीठके संचालकों और उसके सम्पादकोंने उसे प्रकाशमें लाना उचित समझा और इसीलिए जहाँसे भी वह उपलब्ध हुई, वहींसे उसे प्रकाशित करनेकी व्यवस्था की गई है। टीका अपने आपमें साङ्गोपाङ्ग है। प्रत्येक स्थलपर अग्निम वक्तव्यकी उत्थानिका देकर और गाथाको पुरा उधत कर टीका लिखी गई है। प्रत्येक आवश्यक स्थलपर अंक-संदष्टियाँ दी गई है, जिससे उसकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई है। बीच-बीच में अपने कथनकी पुष्टिमें अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहके अनेकों श्लोक एवं गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्डकी अनेकों गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। टीकाकी भाषा अत्यन्त सरल और प्रसादगुण-युक्त है। टीकाकार ___ इस टीकाके रचयिता सूरि ( सम्भवतः भट्टारक ) श्री सुमतिकीति हैं। इन्होंने अपनी इस टीकाको वि० सं० १६२० के भाद्रपद शुक्ला दशमीके दिन ईलाव (?) नगरके आदिनाथ-चैत्यालयमें पूर्ण किया है, यह बात टीकाके अन्तमें दी गई प्रशस्तिसे स्पष्ट है । टीकाकारने अपनी जो गुरु-परम्परा दी है, उसके अनुसार वे मूलसंघ और बलात्कारगणमें श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी परम्परामें उत्पन्न हुए पद्मनन्दी, देवेन्द्रकीत्ति, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण और प्रभाचन्द्रके पश्चात् भट्टारक पदपर आसीन हुए हैं। हंस नामक किसी वर्णीके उपदेशसे प्रेरित होकर उन्होंने प्रस्तुत टीकाका निर्माण किया है। इसका संशोधन उनके गुरु ज्ञानभूषणने किया है। संस्कृत टीकाकारकी एक भूल .पञ्चसंग्रहके टीकाकार समतिकीति समग्र ग्रन्थकी संस्कृत टीका करते हुए भी एक बहुत बड़ी भल प्रस्तुत ग्रन्थके यथार्थ नामको नहीं समझ सकनेके कारण उसके अध्याय-विभाजनमें कर गये हैं। गोम्मटसारका दूसरा नाम पञ्चसंग्रह उसके टीकाकारोंने दिया है। सकलकोत्तिने देखा कि गो० जीव काण्डका विषय प्रस्तुत ग्रन्थके प्रथम प्रकरण जीवसमासमें आया है। किन्तु गो० जीवकाण्डमें तो७३३ गाथाएं है और इसमें केवल २०६ ही । अतः यह लधु गो० जीवकाण्ड होना चाहिए। इसी प्रकार गो० कर्मकाण्डके प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें ९० के लगभग गाथाएँ पाई जाती है, पर इसमें तो केवल १२ ही हैं। इसी प्रकार आगे भी गो० कर्मकाण्डके जिस प्रकरणमें जितनी गाथाएँ हैं, उससे प्रस्तुत ग्रन्थके विवक्षित प्रकरणमें कम ही गाथाएँ दृष्टिगोचर हो रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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