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________________ प्रस्तावना हैं; अतः यह लघु गो० कर्मकाण्ड होना चाहिए । इस प्रकारके मति - विभ्रम हो जानेके कारण उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थको लघु गोम्मटसार ही समझ लिया और इसीके फलस्वरूप अधिकारोंके अन्तमें जो पुष्पिका वाक्य दिये है, उसमें उन्होंने सर्वत्र उक्त भूलको दुहराया है। यहाँ हम इस प्रकारको पुष्पिका के दो उद्धरण देते हैं१. इति श्रीपनसंग्रह | परनामलघु गोम्मटसार सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे बन्धोदयोदीरणसरवप्ररूपणो नाम द्वितीयोऽध्यायः । ( देखो, पृ० ७४ की टिप्पणी ) २. इति श्रीपञ्चसंग्रहगोम्मट्टसार सिद्धान्तटीकायां कर्मकाण्डे जीवसमासादिप्रत्ययप्ररूपणो नाम चतुर्थोऽधिकारः । ( देखो, पृ० १७४ की टिप्पणी ) इस प्रकारकी भूल सभी अधिकारोंमें हुई है । उक्त दोनों उद्धरण गो० कर्मकाण्डके नामोल्लेख वाले दिये गये हैं, गो० जीवकाण्डके नामवाले नहीं। इसका कारण यह है कि प्रारम्भके दो प्रकरणोंपर अर्थात् जीवसमास और प्रकृति समुत्कीर्तनपर संस्कृत टीका उपलब्ध नहीं है। जो आदर्श प्रति प्राप्त हुई है, उसके प्रारम्भके ३७ पत्र नहीं मिल सके हैं जिनमें उक्त दोनों प्रकरणोंकी संस्कृत टीका रही है। लेकिन प्राप्त पुष्पिकाओंके आधारपर यह निश्चय - पूर्वक कहा जा सकता है कि जीवसमासकी समाप्तिपर टीकाकार-द्वारा जो पुष्पिका दी गई होगी, उसमें उसे 'लघु गोम्मटसार जीवकाण्ड' अवश्य कहा गया होगा। साथ ही आगेके अधिकारोंके विभाजनको देखते हुए यह भी निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि उसके भी अधिकारोंका दिना जन उन्होंने ठीक उसी प्रकार किया होगा, जिस प्रकारसे कि गो० जीवकाण्ड में पाया जाता है । इसके प्रमाण में हम उपलब्ध पुष्पिकाओंसे दिये गये अधिकारोंकी क्रम संख्याको प्रस्तुत करते हैं। प्रा० पञ्चसंग्रहका कर्मस्तव तीसरा अधिकार है । पर उसके अन्तमें जो पुष्पिका दी गयी है, उसमें उसे दूसरा अध्याय कहा गया है। ( देखो, पृ० ७४ की ऊपर दी गई पुष्पिका ) इससे ज्ञात होता है कि उन्होंने प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे अधिकारको प्रथम अधिकार समझा है और यतः गो० कर्मकाण्ड में प्रकृति- समुत्कीर्त्तन नामका प्रथम और बन्धोदयसत्त्व प्ररूपणावाला द्वितीय अधिकार पाया जाता है, अत: टीकाकारने प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारसे लेकर आगे के भागको गो० कर्मकाण्डका संक्षिप्त रूप मान लिया, और उसके पूर्ववर्ती भागको गो० जीवकाण्डका । अतः उन्होंने तदनुसार ही अधिकारोंका विभाजन करना प्रारम्भ कर दिया । यदि उन्हें यह विभ्रम न होता, तो वे पञ्चसंग्रहके मूल अधिकारोंके समान ही अधिकारों का विभाजन करते और उनके अन्तमें ही अपनी पुष्पिका देते । उक्त विभ्रमकी पुष्टिमें दूसरी बात यह है कि प्रारम्भके दो अधिकारोंको टीकाको छोड़कर शेष अधिकारोंपर जो टीका की गई है, उसपर मूल अधिकारोंके समान ही अधिकारोंकी अंक संख्या दी जानी चाहिए थी। किन्तु हम देखते हैं कि पाँचवें सप्ततिका अधिकारकी समाप्तिपर सातवें अध्याय के समाप्तिका निर्देश किया गया है । । टीकाकारने मूल-गाथा और भाष्य - गाथाका अन्तर न समझ सकनेके कारण कहीं-कहीं मूल और भाष्यगाथाकी टीका एक साथ ही की है। पर मैंने सर्वत्र मूल गाथासे भाष्य-गाथाको पृथक् रखा है और तदनुसार पृथक् रूपसे ही उसका अनुवाद किया है। इससे २१ स्थलोंपर अनुवाद कुछ असंगत-सा दिखाई देने लगा है (देखो, पृ० ४१५ इत्यादि ) । परन्तु मूल-गाथाओंकी भिन्नता प्रकट करनेके लिए उनका पृथक् अनुवाद करना अनिवार्य रूपसे आवश्यक था । जिस प्रकार आ० अमितगतिने श्लेषरूपमें प्रत्येक अधिकारके अन्तमें अपने नामका उल्लेख किया है ठीक उसी प्रकारसे संस्कृत टीकाकारने भी किया है और इसलिए अमितगतिके सं० पञ्चसग्रहका अपनी टीका में भरपूर उपयोग करते हुए एवं पर्याप्त संख्यामे उसके श्लोकोंको उद्धृत करते हुए भी उन्होंने उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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