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________________ पञ्चसंग्रह अधिकार समाप्तिपर दिये गये इलोकोंमें थोड़ा-बहुत शब्द-परिवर्तन कर स्व-रचितके रूपमें उपस्थित किया है । उदाहरण के लिए एक बानगी इस प्रकार है ४४ बन्धविचारं बहुतमभेदं यो हृदि धत्ते विगलितखेदम् । याति स भव्यो व्यपगतकष्टां सिद्धिमबन्धोऽमितगतिरिष्टाम् ॥ Jain Education International ( सं० पञ्चसं० पृ० १४६ ) बन्धविचारं बहुविधिभेदं यो हृदि धते विगलितपापम् । याति स भव्यः सुमतिसुकीतिं सौख्यमनन्तं शिवपदसारम् ॥ दोनों पद्योंमें एक ही बात कही गई है, शब्द और अर्थ साम्य भी है । परन्तु 'अमितगति' के नामपर अपने 'सुमतिकीत्ति' नामको प्रतिष्ठित कर दिया गया है जो स्पष्टरूपसे अनुकरण है । विषय - परिचय जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे प्रकट है, इसमें पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया गया है । उनके नाम इस प्रकार हैं- जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धस्तव, शतक और सप्ततिका । ( प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० २३३ ) ――――― १ जीवसमास -- इस प्रकरणमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग, इन बीस प्ररूपणाओंके द्वारा जीवोंको विविध दशाओंका वर्णन किया गया है। मोह और योगके निमित्तसे होनेवाले जीवोंके परिणामोंके तारतम्यरूप क्रम विकसित स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं । गुणस्थान चौदह होते हैं -- मिध्यात्व, सासादन, सम्यग्मिथ्यात्व, अदिरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्व - करण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली । इनका स्वरूप प्रथम प्रकरणके प्रारम्भमें बतलाया गया है । दूसरी जीवसमास प्ररूपणा है । जिन धर्मविशेषोंके द्वारा नाना जीव और उनकी नाना प्रकारको जातियाँ जानी जाती हैं, उन धर्मविशेषोंको जीवसमास कहते हैं । जीवसमासके संक्षेपसे चौदह भेद हैं और विस्तारकी अपेक्षा इक्कीस, तीस, बत्तीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौवन और सत्तावन भेद होते हैं । इन सर्व भेदोंका प्रथम प्रकरण में विस्तारसे विवेचन किया गया है। तीसरी पर्याप्तिप्ररूपणा है । प्राणोंके कारणभूत शक्तिकी प्राप्तिको पर्याप्ति कहते हैं । पर्याप्तियाँ छह प्रकारकी होती हैंआहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । एकेन्द्रियजीवोंके प्रारम्भकी चार, विकलेन्द्रिय जीवोंके प्रारम्भकी पाँच और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके छहों पर्याप्तियाँ होती हैं । चौथी प्राणप्ररूपणा है । पर्याप्तियोंके कार्यरूप इन्द्रियादिके उत्पन्न होनेको प्राण कहते हैं । प्राणोंके दस भेद हैं—स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । इनमेंसे एकेन्द्रिय जीवोंके स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास; ये चार प्राण होते हैं । द्वीन्द्रियजीवोंके रसनेन्द्रिय और वचनबल इन दोके साथ उपर्युक्त चार प्राण मिलाकर छह प्राण होते हैं । त्रीन्द्रियजीवोंके इन्हीं छह में घ्राणेन्द्रिय मिला देनेपर सात प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवोंके इन्हीं सात में चक्षुरिन्द्रिय मिला देनेपर आठ प्राण होते हैं । असंज्ञी पञ्चेन्द्रियजीवोंके इन्हीं आठमें कर्णेन्द्रिय मिला देनेपर नौ प्राण होते हैं । संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके इन्हीं नौ प्राणोंमें मनोबल और मिला देनेपर दस प्राण होते हैं । पाँचवीं संज्ञा - प्ररूपणा है । जिनके सेवन करनेसे जीव इस लोक और परलोकमें दुःखोंका अनुभव करता है, उन्हें संज्ञा कहते हैं । संज्ञाके चार भेद हैं-आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह संज्ञा । एकेन्द्रियसे लगाकर पञ्चेन्द्रिय तकके सर्व जीवोंके ये चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं । जिन अवस्थाविशेषों में जीवोंका अन्वेषण किया जाता है, उन्हें मार्गणा कहते हैं । मार्गणाओंके चौदह भेद हैं- गतिमार्गणा, इन्द्रियमार्गणा, कायमार्गणा, योगमार्गणा, वेदमार्गणा, कषायमार्गणा, ज्ञानमार्गणा, संयममार्गणा दर्शनमार्गणा, For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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