________________
प्रस्तावना
५५
लेश्यामार्गणा, भव्यमार्गणा, सम्यक्त्वमार्गणा, संज्ञिमार्गणा और आहारमार्गणा। प्रथम प्रकरणमें इन चौदह मार्गणाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। बीसवीं उपयोग-प्ररूपणा है। वस्तुके स्वरूपको जाननेके लिए जीवका जो भाव प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकारका होता है-साकारोपयोग
और अनाकारोपयोग । साकारोपयोगके आठ और अनाकारोपयोगके चार भेद होते हैं। इस प्रकार पहले जीवसमास प्रकरणमें बीसप्ररूपणोंके द्वारा जीवोंकी विविध दशाओंका विस्तारके साथ वर्णन किया गया है।
__२ प्रकृतिसमुत्कीर्तन-यह पञ्चसंग्रहका द्वितीय प्रकरण है। इसमें कर्मोकी मूल प्रकृतियों और उत्तर प्रकृतियोंका निरूपण किया गया है। मूलप्रकृतियां आठ हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ क्रमशः पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानबे, दो और पांच है। जो सब मिलाकर १४८ होती हैं। इनमें से बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ १२०, उदययोग्य प्रकृतियाँ १२२, उद्वेलन-प्रकृतियाँ ११, ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७, अध्रुवबन्धी ११, परिवर्तमान प्रकृतियाँ ६२ तथा सत्त्वयोग्य प्रकृतियाँ १४८ हैं। पञ्चसंग्रहके पाँचों प्रकरणोंमें यह सबसे छोटा प्रकरण है। यतः कर्म-विषयक अन्य ग्रन्थोंमें कर्म-प्रकृतियोंका विस्तृत विवेचन किया गया है, अतः ग्रन्थकारने प्रकृतियोंके नाम-निर्देशक अतिरिक्त अन्य कुछ वर्णन करना आवश्यक नहीं समझा है।
३ कर्मस्तव-यह पञ्चसंग्रहका तृतीय प्रकरण है। कुछ आचार्य इसे बन्धस्तव और कुछ कर्मबन्धस्तवके नामसे भी इसका उल्लेख करते हैं । इस प्रकरणकी मूलगाथाओंकी संख्या ५२ और भाष्यगाथाओं तथा चूलिका गाथाओंकी संख्या मिलाकर सर्व गाथाएँ ७७ है। इस प्रकरणमें चौदह गुणस्थानोंमें बंधनेवाली, नहीं बँधनेवालो और बन्धसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका; तथा सत्त्व-योग्य, असत्त्व-योग्य और सत्त्वसे व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोंका विवेचन किया गथा है और अन्तमें चूलिकाके भीतर नो प्रश्नोंको उठाकर उनका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि किन प्रकृतियोंकी बन्ध-ज्युच्छित्ति, उदय-व्युच्छित्ति और सत्त्व-व्युच्छित्ति पहले, पीछे या साथमें होती है। इस नवप्रश्नरूप चूलिकाके द्वारा कर्मप्रकृतियोंकी बन्ध, उदय और सत्त्वव्युच्छित्ति सम्बन्धी कितनी ही ज्ञातव्य बातोंका सहजमें ही बोध हो जाता है । 'स्तव' नाम विवेच्य वस्तुके विवेचन करनेवाले अधिकारका है, अतः यह मूल प्रकरण दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें कर्मस्तव या बन्धस्तव नामसे प्रसिद्ध है।
४ शतक-पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणका नाम शतक है। यतः इस प्रकरणके मल गाथाओंकी संख्या सौ है, अतः यह प्रकरण 'शतक' नाससे ही दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सन्प्रदायोंमें प्रसिद्ध है। इस प्रकरणमें चौदह मार्गणाओंके आधारसे जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग और योगका वर्णन करके तदनन्तर कम-बन्धके कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति आदि बन्ध-प्रत्ययोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है । साथ ही मिथ्यात्व आदि गुणस्थानोंमें जघन्य और उत्कृष्ट प्रत्ययोंकी अपेक्षा सम्भव संयोगी भंगोंका विस्तृत विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके विशेष बन्ध-प्रत्ययोंका वर्णन किया गया है । पुनः कर्मबन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका स्वामित्व आदि अनेक अधिकारोंके द्वारा विस्तारसे साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। इस प्रकरणके मलगाथाओंकी संख्या १०५ है और उनके साथ भाष्यगाथाओंकी संख्या ५२२ है।
५ सप्ततिका-पञ्चसंग्रहके पांचवें प्रकरणका नाम सप्ततिका है। यतः इस प्रकरणके मूलगाथाओंकी संख्या सत्तर है, अतः यह प्रकरण दोनों ही सम्प्रदायोंमें 'सित्तरी' या 'सप्ततिका'के नामसे प्रसिद्ध है । इस प्रकरणमें मुलकर्मों और उनके अवान्तर भेदोंके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानोंका स्वतन्त्ररूपसे एवं चौदह जीवसमास और गुणस्थानोंके आश्रयसे विवेचन कर उनके संभव भंगोंका विस्तारसे वर्णन करते हुए अन्तमें कर्मोकी उपशामना और क्षपणाका विवेचन किया गया है। इस प्रकरणकी मूलगाथाएं अतिसंक्षिप्त एवं दुरूह हैं, इस बातका अनभव करके ही भाष्यगाथाकारने उनका विवेचन भाष्यगाथाएँ रचकर अतिसुगम कर दिया है । इस प्रकरणको मूलगाथा-संख्या ७२ है और उनके साथ भाष्यगाथाओंकी संख्या ५०७ है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org