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________________ पञ्चसंग्रह अवश्य उन्होंने यथास्थान किया है। दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंकी तुलना संक्षेपमें इस प्रकार की जा सकती है १-कितने ही स्थलोंपर स्थानकी उपयुक्तता डड्डाकृत पञ्चसंग्रहमें पाई जाती है वह अमितगतिके पञ्चसंग्रहमें नहीं है। (क) संज्ञाओंके स्वरूप उड्डाने यथास्थान दिये हैं किन्तु अमितगतिने जीवसमास प्रकरणके अन्तमें दिये हैं। (ख) साधारण वनस्पतिका लक्षण डडाकृत सं० पञ्चसंग्रहमें प्रा० पञ्चसंग्रहके समान यथास्थान दिया गया है। किन्तु अमितगतिने उसे यथास्थान न देकर उससे बहत पहले दिया है। (देखो जीवसमास प्रकरण श्लो० १०५ आदि ।) (ग) जीवसमास प्रकरणमें ज्ञानमार्गणाका वर्णन डडाने प्रा० पञ्चसंग्रहके ही अनुसार किया है। किन्तु अमितगतिने इसे कुछ परिवधित किया है, अतः मत्यज्ञान आदिका स्वरूप मुलके अनुसार यथास्थान न होकर स्थानान्तरित हो गया है। २-कितने ही स्थलोंपर डड्डाकी रचना अमितगतिकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है। देखो मार्गणाओंके नामवाले दोनोंके श्लोक : अमितगति पञ्चसंग्रह श्लोक १, १३२, १३३ डड्डा १,६८ ३-डड्डाकी रचना मूल गाथाओंके अधिक समीप है, अमितगतिकी नहीं। देखो प्रथम प्रकरणमें चारों गतियोंका स्वरूप तथा कायमार्गणा और कषायमार्गणाके श्लोक आदि । ४-प्राकृत पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें 'अण्डज पोतज जरजा' इत्यादि गाथा दी हुई है। पर अमितगतिने इसका अनुवाद नहीं दिया, जब कि डड्डाने दिया है। (देखो श्लोक १,८६)। इसी प्रकार संयममार्गणामें ११ प्रतिमावाली गाथाका भी। (देखो श्लोक १, १७१)। ५-जीवसमासकी ७४वीं मूल गाथाका पद्यानुवाद जितना डड्डाका मूलके समीप है उतना अमितगतिका नहीं। (देखो १,१५१ और १,१८७)। ६-अमितगतिने जीवसमासकी 'साहारणमाहारो' इत्यादि तीन गाथाओंका (प्रकरण १, गाथा ८७ आदि ) जहाँ स्पर्श भी नहीं किया, वहाँ डड्डाने उनका सुन्दर पद्यानुवाद किया है। समझमें नहीं आता कि अमितगतिने उक्त गाथाओंको क्यों छोड़ दिया। ७-उक्त स्थलपर अमितगतिने गोम्मटसार जीवकाण्डकी 'उववाद मारणंतिय' इत्यादि गाथाका आश्रय लेकर उसका अनुवाद किया है जबकि जीवसमासके मूलमें बह गाथा नहीं है और इसीलिए डड्डाने उसका अनुवाद नहीं किया। ८-कितने ही स्थलोंपर डड्राने अमितगतिकी अपेक्षा कुछ विषयोंको बढ़ाया भी है। यथा :( क ) प्रथम प्रकरणमें धर्मोका स्वरूप । (ख) योगमार्गणाके अन्तमें विक्रियादिका स्वरूप । ९-अमितगतिने 'मनःपर्ययदर्शन क्यों नहीं होता' इस प्रश्नपर भी प्रकाश डाला है। यतः यह बात मूल गाथामें नहीं है अत: डड्डाने उसपर कुछ प्रकाश नहीं डाला। (देखो दर्शनमार्गणा प्रकरण १)। १०-अमितगतिने प्रथम प्रकरणमें सम्यक्त्व मार्गणाके भीतर गोम्मटसार कर्मकाण्डके आधारसे ३६३ पाखंडियोंकी चर्चा की है। पर मूलमें न होनेसे डड्डाने उसकी चर्चा नहीं की ११-अमितगतिने तीसरे प्रकरणके श्लोक संख्या ८२, ८७ आदिके पश्चात् जिस बातको संस्कृत गद्यके द्वारा स्पष्ट किया है वैसा डझाने नहीं किया। सम्भवतः इसका कारण यह ज्ञात होता है कि वे मलसे बाहरकी बातको नहीं कहना चाहते हैं। " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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