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________________ प्रस्तावना " अण्णे भगति सुस्सरं विगर्हिदियाणं णत्थि । तण्ण, संसकम्मे उक्तत्वात्।" - ( सित्तरी चूर्णि० गा० २५ पत्र २१ ।१ ) अर्थात् जो लोग यह कहते हैं कि विकलेन्द्रियोंके सुस्वर कर्मका उदय नहीं होता है, तो उनका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि संतकम्मपाहुडमें विकलेन्द्रिय जीवोंके सुस्वर कर्मका उदय कहा गया है। इस शंका-समाधान से यह निष्कर्ष निकलता है कि संतकम्मपाहुडके सभी उपदेश वीरसेनको मान्य नहीं रहे हैं। इस बातकी पुष्टि एक अन्य उद्धरणसे भी होती है धवला पुस्तक ९ पृ० ३१८ पर वीरसेनने कहा है........मध्याबहु सोलसवदिय अप्पाबरण सह विरुमदे" तेणेत्थ उवएसं लहिय एगदरणिओ कायवी संतकम्मपयडिपाहुडं मोसूण सोलसपदिय अप्पाबहुअदंड पहाणे कड़े।" अर्थात् संतकम्मपाहुडके उपदेशको छोड़कर इस सोलहपदिक उपदेशकी मुख्यतासे इस विवक्षित अल्पबहुत्वका निर्णय करना चाहिए । ऊपर दिये गये अन्तिम दो उल्लेखोंसे यह बात भलीभांति सिद्ध होती है कि कितनी ही बातों में संतकम्मपाहुडका उपदेश कसाय पाहुड, कम्मपवडी आदिके उपदेशोंसे भिन्न रहा है और धवलाकारको जहाँ जो बात उचित जँची है वहाँ उसका समर्थन या निषेध कर दिया है । अथवा तुल्य बलवाली बातों में दोनोंको प्रमाण मानकर उनके उपदेशको संग्रह करनेका भी विधान कर दिया है। उक्त विवेचनके प्रकाशमें जब हम नं० ४ और नं बातें विचारणीय हो जाती है ५ के उद्धरणोंका मिलान करते हैं, तो बहुत-सी - ३३ १. महाकम्पड पाहुडके जिन उदय आदि शेष अट्ठारह अनुयोग द्वारोंको संतकम्मपाहुड माननेकी सूचना धवला और जयधवलाकारने की है, क्या वह ठीक है ? २. संतकम्मपाहुडके नामसे जितने भी मतभेद धवला, जयधवला और सित्तरी चूणि आदिमें मिलते हैं, वे सब क्या उक्त अट्ठारह अनुयोग द्वारोंगे उपलब्ध हैं? यदि नहीं, तो फिर उन्हें संतकम्मपाहुड क्यों माना जाय ? ३. नं० ७ पर दिये गये उद्धरणके अनुसार संतकम्मपाहुडको गाथा निवद्ध होना चाहिए पर उक्त १८ अनुयोग द्वारोंके जितने भी सूत्र मिलते हैं, वे सब गद्यरूप हैं। पद्यरूपमें उनके भीतर एक भी प्राप्त नहीं है। ऐसी दशामें यही क्यों न माना जाय कि षट्खण्डागमको जो संतकम्मपाहूढ मानते हैं उनकी धारणा भ्रममूलक हैं । दो दिगम्बर संस्कृत पञ्चसंग्रह प्राकृत पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर जिस संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना आचार्य अमितगतिने की है उसका परिचय पहले दिया जा चुका है। उसी प्राकृत पञ्चसंग्रहको आधार बनाकर श्री श्रीपालसुत ढड्ढाने अपने संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना की । अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रह के होते हुए उन्हें एक और संस्कृत पञ्चसंग्रहकी रचना क्यों आवश्यक प्रतीत हुई यह एक विचारणीय प्रश्न है। दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेपर उक्त प्रश्नका उत्तर हमें मिल जाता है। आचार्य अमितगतिने मूल प्राकृत पञ्चसंग्रहका शब्दशः अनुकरण नहीं किया। कितने ही स्थलोंपर उन्होंने मूलके अंश को छोड़ा है और कितने ही स्थलोंपर कुछ नवीन बातोंको जोड़ा भी है। इस बात की चर्चा हम पहले स्वतन्त्र रूपसे कर आये हैं । अमितगतिकी यह बात सम्भवतः डड्डाको अच्छी नहीं लगी और इसीलिए उन्हें एक स्वतन्त्र पद्यानुवादकी प्रेरणा प्राप्त हुई उड्डाने सर्वत्र मूलका अनुगमन किया है जहाँ अमितगतिने अनावश्यक या अतिरिक्त वर्णन किया है उसे प्रायः डड्ढाने छोड़ दिया है। हाँ, कहीं-कहीं कुछ आवश्यक बातोंका निरूपण १ देखो, धवला पुस्तक सं० १ की प्रस्तावना | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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