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________________ प्रस्तावना दोनों संस्कृत पञ्चसंग्रहोंके सम्बन्धमें कुछ विचारणीय बातें १–अमितगतिने पांचवें प्रकरणमें पृष्ठ १७४के नीचे 'उक्तं च' कहकर 'असम्प्राप्त' इत्यादि १६५ वाँ श्लोक दिया है। ठीक इसी प्रकारसे इसी स्थलपर डडाने श्लोक १४८ के नीचेवाली गद्य के पश्चात् 'उक्तं च' कहकर "अयशःकी." इत्यादि अमितगतिसे भिन्न ही श्लोक दिया है। यहाँ विचारणीय बात यह है कि जब दोनों ही श्लोक अर्थ-साम्य रखते हुए भी शब्द-साम्य नहीं रखते, तो फिर 'उक्तं च'का क्या अर्थ है ? क्या यह 'मक्षिकास्थाने मक्षिकापात:' नहीं है ? यही बात आगे भी दृष्टिगोचर होती है। २-अमितगतिके संस्कृत पञ्चसंग्रहके पृष्ठ २०४ पर 'एतदुक्तम्' कहकर 'चतुःषष्ठ्या ' इत्यादि ३५० वाँ श्लोक है। तथैव डड्डाके पञ्चसंग्रहमें सप्ततिकामें श्लोकाङ्क ३१७ 'उक्तं च' कहकर दिया गया है। खास बात यह है कि अर्थ-साम्य होते हुए भी दोनों श्लोकोंमें शब्द-साम्य नहीं है। ३-डड्डाकृत सप्ततिकाके श्लोक संख्या २४९ के पश्चात् 'अत्र वृत्तिश्लोकाः पञ्च' वाक्य दिया है। उसका आधार क्या है ? यह विचारणीय है। यदि इन श्लोकोंका आधार पञ्चसंग्रहकी संस्कृत वृत्ति ही है तो यह सिद्ध है कि डड्डा संस्कृत टीकाकारके पीछे हुए हैं। ४-अमितगतिसे उड्डाके पञ्चसंग्रहमें एक विशेषता यह भी है कि जहाँ अमितगतिने सप्ततिकामें पृष्ठ २२१ पर श्लोकांक ४५३ में शेष मार्गणाओंके बन्धादि-त्रिकको न कहकर मूलके समान ही 'पर्यालोच्यो यथागमं' कहकर छोड़ दिया है, वहाँ डड्डाने श्लोकांक ३९० में 'बन्धादित्रयं नेयं यथागम' कहकर भी उसके आगे समस्त मार्गणाओंमें उसे आधार बनाकर बन्धादि-त्रित के पूरे स्थानोंको गिनाया है जो कि प्राकृत पञ्चसंग्रहके निर्देशानुसार होना ही चाहिए । अमितगतिने उन्हें क्यों छोड़ दिया ? यह बात विचारणीय है। सभाध्य पञ्चसंग्रह पञ्चसंग्रहमें संगृहीत पांचों प्रकरणोंके मूल रूपोंको देखनेपर सहजमें ही यह अनुभव होता है कि प्रत्येक प्रकरणको मूल-गाथा-संख्या अल्प रही है और संग्रहकारने उनपर भाष्यगाथाएँ रचकर उन्हें पल्लदित । परिवधित कर प्रस्तुत संकलनका नाम 'पञ्चसंग्रह' रखा है। प्रस्तुत ग्रन्थमें संग्रहकारने जिन पाँच प्रकरणोंका संग्रह किया है, उनके नाम इस प्रकार हैं-१ जीवसमास, २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३ कर्मस्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका । इनमें से अन्तिम तीन प्रकरण अपने मूलरूप और उसकी प्राकृत चूणि एवं संस्कृत टीकाओंके साथ विभिन्न संस्थाओंसे प्रकाशित हो चुके हैं। उनके साथ जब हम प्रस्तुत ग्रन्थमें संगृहीत इन प्रकरणोंका मिलान करते हैं, तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि संग्रहकारने किस प्रकरणपर कितनी भाष्य-गाथाएँ रची हैं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कर्मस्तवको कर्मबन्धस्तव या बन्धस्तव भी कहते हैं। श्वे० सम्प्रदायमें इसकी गणना प्राचीन कर्मग्रन्थोंमें की जाती है। अभी तक भी इसके संग्रहकर्ता या रचयिताका नाम अज्ञात है। श्वे० संस्थाओंकी ओरसे जो इसके संस्करण प्रकाशित हुए हैं, उनमें इसकी गाथा-संख्या ५५ पाई जाती है। और प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तमें मुद्रित प्राकृतवृत्ति-युक्त पञ्चसंग्रहमें इसकी गाथा-संख्या ५४ पाई जाती है। किन्तु इसपर रची गई भाष्य-गाथाओंको देखते हुए इस प्रकरणकी मल-गाथा-संख्या ५२ ही सिद्ध होती है, अतः हमने तदनुसार ही गाथाके प्रारम्भमें यही मूल-गाथा-संख्या दी है। संग्रहकारने सभी मूल-गाथाओंपर भाष्य-गाथाएँ नहीं रची हैं, किन्तु उन्हें जो गाथाएँ क्लिष्ट या अर्थ-बहल प्रतीत हईं, उनपर ही उन्होंने भाष्य-गाथाएँ रची हैं । इस प्रकार १२ गाथाएँ ही इस प्रकरण में भाष्य-गाथाओंके रूपमें उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकरणके अन्तमें एक चूलिका प्रकरण भी है जो श्वे० संस्थाओंसे प्रकाशित बन्धस्तवमें नहीं पाया जाता । प्राकृतवृत्तिमें उसकी गाथा-संख्या ३४ है। किन्तु सभाष्य-कर्मस्तवमें चुलिका रूपसे केवल १३ गाथाएं ही मिलती हैं । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन दोनों चूलिकाओंमें विषय-गत समता होते हुए भी गाथागत कोई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org | Jain Education International
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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