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________________ ३६ . पञ्चसंग्रह समानता नहीं है। प्रत्युत ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त १३ गाथाओंको सामने रखकर उनके भाष्यरूपमें ३४ गाथाओंका निर्माण किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थके चौथे प्रकरणका नाम शतक है। यतः इसकी मूल-गाथाएँ १०० ही रही हैं, अत: इसका नाम गाथा-संख्याके आधारपर शतक ही प्रसिद्ध या प्रचलित हो गया है। श्वे० संस्थाओंसे मुद्रित शतक प्रकरणमें इसकी गाथा-संख्या १०६ पाई जाती है। प्राकृतवृत्तिके अनुसार इसको गाथा-संख्या १३९ है। किन्तु सभाष्य शतकके अनुसार इसकी गाथा-संख्या १०५ ही सिद्ध होती है। यद्यपि दोनों सम्प्रदायोंके अनुसार इस प्रकरणकी मूल-गाथाएँ १०० से अधिक मिलती हैं, पर ऐसा ज्ञात होता है कि प्रारम्भकी उत्थानिकागाथा और अन्तको उपसंहारात्मक-गाथाओंको न गिननेपर विवक्षित विषयकी प्रतिपादक गाथाओंको लक्ष्य करके 'शतक' यह नाम प्रख्यात हुआ है । भाष्यकारने इन मूल-गाथाओंपर जो भाष्य-गाथाएँ रची हैं, उन्हें मिलाकर इस प्रकरणकी गाथा-संख्या ५२२ हो जाती है, जिसका यह निष्कर्ष निकलता है कि इस प्रकरणकी भाष्यगाथा-संख्या ४१७ है। पांचवें प्रकरणका नाम सप्ततिका है । प्राकृत भाषामें इसे सित्तरी या सत्तरी भी कहते हैं। इस प्रकरणका भी नाम-करण उसको गाथा-संख्याके आधारपर प्रसिद्ध हआ है। सित्तरी या सप्ततिका नामको देखते हुए इसकी मूल-गाथा-संख्या ७० ही होनी चाहिए। श्वे० संस्थाओंसे प्रकाशित प्रतियोंके अनुसार इसकी गाथासंख्या ७२ है। प्राकृतवृत्तिमें उसको गाथा-संख्या १९ पाई जाती है। परन्तु भाष्यगाथाकारके अनुसार ७२ ही सिद्ध होती है । इसकी यदि आदि और अन्तकी उत्थानिका और उपसंहार-गाथा रूप २ गाथाओंको छोड़ दिया जावे, तो विवक्षित अर्थको प्रतिपादन करनेवालो ७० गाथाएँ ही रह जाती है और तदनुसार इसका सित्तरी या सप्ततिका नाम भी सार्थक हो जाता है। भाष्य-गाथाकारने इन मूल-गाथाओंपर जो भाष्य-गाथाएँ रची हैं, उनके समेत इस प्रकरणकी कुल गाथा-संख्या ५०७ है और इसके अनुसार भाष्य-गाथाओंकी संख्या ४३५ सिद्ध होती है। उक्त दोनों प्रकरणोंपर ही संग्रहकारने सबसे अधिक भाष्य-गाथाओंकी रचना की है। यतः विषयकी दृष्टिसे ये दोनों प्रकरण ही दुर्गम एवं अर्थ-बहुल रहे हैं, अतः उनपर अधिक भाष्य-गाथाओंका रचा जाना स्वाभाविक ही है। पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणका नाम जीवसमास है । इस नामका एक ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलामकी ओरसे सन् १९२८ में एक संग्रहके भीतर प्रकाशित हुआ है, जिसकी गाथा २८६ है। नाम-साम्य होते हए भी अधिकांश गाथाएँ न विषय-गत समता रखती हैं और न अर्थगत समता ही। गाथा-संख्याकी दृष्टिसे भी दोनोंमें पर्याप्त अन्तर है। फिर भी जितना कुछ साम्य पाया जाता है, उनके आधारपर एक बात सुनिश्चित रूपसे कही जा सकती है कि श्वे० संस्थाओसे प्रकाशित जीवसमास प्राचीन है। पञ्चसंग्रहकारने उसके द्वारा सूचित अनुयोग द्वारोंमेंसे १-२ अनुयोग द्वारके आधारपर अपने जीवसमास प्रकरणकी रचना की है । इसके पक्षमें कुछ प्रमाण निम्न प्रकार है १. श्व० संस्थाओंसे प्रकाशित जीवसमासको 'पूर्वभत्सुरिसूत्रित' माना जाता है। इसका यह अर्थ है कि जब जैन परम्परामें पूर्वोका ज्ञान विद्यमान था, उस समय किसी पूर्ववेत्ता आचार्यने इसका निर्माण किया चनाके देखनेसे ऐसा ज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ भतबलि और पुष्पदन्तसे भी प्राचीन है और वह षट्खण्डागमके जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्डको आठों प्ररूपणाओंके सूत्र-निर्माणमें आधार रहा है, तथा यही ग्रन्थ प्रस्तुत पञ्चसंग्रहके जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणका भी आधार रहा है। इसकी साक्षीमें उक्त ग्रन्थकी एक गाथा प्रमाण रूपसे उपस्थित की जाती है जो कि श्वे. जीवसमासमें मंगलाचरणके पश्चात ही पाई जाती है। वह इस प्रकार है णिस्खेव-णिरुत्तोहिं य छहिं अहिं अणुभोगदारेहिं । गइभाइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतव्वा ॥२॥ इसमें बतलाया गया है कि नामादि निक्षेपोंके द्वारा; निरुक्तिके द्वारा, निर्देश, स्वामित्व आदि छह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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