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________________ सप्ततिका ५२१ संज्वलन लोभकी सर्व प्राणियोंके उदय और उदीरणा सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके कालमें एक आवली शेष रहने तक होती रहती है। तदनन्तर आवलीमात्र कालमें उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। तीनों वेदोंमेंसे जिस वेदके उदयसे जीव श्रेणीपर चढता है उसके अन्तरकरण करनेपर प्रथमस्थितिमें एक आवलीकालके शेष रह जानेके पश्चात् उस वेदका उदय ही होता है, उदीरणा नहीं। चारों ही आयुकर्मोका अपने-अपने भवकी अन्तिम आवलीके शेष रह जानेपर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। किन्तु मनुष्यायुमें इतना विशेष ज्ञातव्य है कि छठे गुणस्थान तक उसके उदय और उदीरणा दोनों होते हैं, किन्तु उससे ऊपरके सर्व अप्रमत्त जीवोंके उसका उदय ही होता है, उदोरणा नहीं होती। नामकर्मकी वक्ष्यमाण नौ प्रकृतियोंका और उच्चगोत्रका तेरहवें गुणस्थान तक उदय और उदीरणा दोनों होते हैं। किन्तु चौदहवें गुणस्थानमें उनका केवल उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती। इन इक्कीसप्रकृतियोंके सिवाय शेष सर्व प्रकृतियोंके उदय और उदीरणामें स्वामित्वकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। ____ अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त गाथासूत्रसे सूचित नामकर्मको नौ प्रकृतियोंका नामनिर्देश करते हैं मणुयगई पंचिंदिय तस बायरणाम सुहयमादिजं । पज्जत्तं जसकित्ती तित्थयरं णाम णव होति ॥४७॥ ज्ञा०५ नरकायु ति०आ० प्र० सम्य० वेदः लोभः द०४ नामक मिथ्या० अंत०५ मनु० नि०प्र० देवायु सं० सब्वे मेलिया ४१। नास्नो नव का इति चेदाह-['मणुयगई पंचिंदिय' इत्यादि ।] मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ वसत्वं १ बादरनाम १ सुभगं १ आदेयं १ पर्याप्तं १ यशस्कीर्तिनाम १ तीर्थङ्करत्वं चेति नाम्नो नव प्रकृतयो भवन्ति है । एतासां ४१ प्रकृतीनामुदीरणाऽपक्वपाचना सासादन-मिश्रापूर्वकरणोपशान्तकषायायोगिकेवलिगुणस्थानेषु न भवति, अन्यगुणस्थानेषु एतासामुदीरणा भवति ॥४७५॥ गुणस्थानेषु उदीरणाप्रकृतयः गुण मि. सा. मि० अ० दे० प्र० अप्र० अपू० अनि० सू० उ० पी० स० अ० उदी० सं० १ . ० २ १ ६ ० ३ १ ० १६ १० . ज्ञा० ५ उदी० प्र० मिथ्या० ० ० नर० देवा० तिर्य सातादि० सम्य०० वेदाः सं०लो० ० अ० ५ मनु० ० तथाहि मिथ्यात्वप्रकृतेमिथ्यादृष्टी उपशमसम्यक्त्वाभिमुखस्य समयाधिकावलिपर्यन्तमुदीरणाकरणं स्यात् १ । तावत्पर्यन्तमेव तदुदयात् । सासादने मिश्रे च शून्यम् । असंयते देव-नरकायुषोरुदीरणा २ । देशसंयते तियंगायुष उदारणा १ । प्रमत्ते सातासाते २ मनुष्यायुः१ स्यानगृद्धित्रय ३ मिति पण्णामुदीरणा ६ । अप्रमत्ते सम्यक्त्वप्रकृतेरुदीरणा १। अपूर्वकरणे शून्यसुदीरणा नास्ति । अनिवृत्तिकरणे वेदानां व्रयाणा __1. ५, ४४३--४४७ । तथा तदधस्तनसंख्याङ्कपंक्तिश्च (पृ० २२०)। ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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