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________________ पञ्चसंग्रह मुदीरणा ३ । सूक्ष्मसाम्पराये संज्वलनसूक्ष्मलोभस्योदीरणा १, अन्यत्र तदुदयाभावात् । उपशान्ते शून्यम्० । क्षीणकषाये ज्ञानावरणान्तरायदशकं १० निदा प्रचलाद्विकं २ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणचतुष्क ४ मिति पोडशानामुदीरणा १६ । सयोगे मनुष्यगतिः १ पञ्चेन्द्रियं १ श्रसं १ बादरं १ सुभगं 8 आदेयं १ पर्याप्तं १ यशः १ तीर्थंकरत्वं १ उच्चैर्गोत्र १ मिति दशानां १० प्रकृतीनामुदीरणा भवति । अयोगे शून्य मुदीरणा नास्ति । सर्वा मीलिताः ४१ । तथा चोक्तम् ५२२ मिथ्यात्वं तत्र दुर्दृष्टौ तुर्ये श्वभ्र-सुरायुषी । तैरचं जीवितं देशे घडेताः सप्रमादके ॥३१॥ सातासातमनुष्यायुः स्त्यानगृद्धित्रयाभिधाः । सम्यक्त्वं सप्तमे वेदत्रितयं त्वनिवृत्तिके ॥ ३२ ॥ लोभः संज्वलनः सूक्ष्मे क्षोणाख्ये दृक्चतुष्टयम् । दश ज्ञानान्तरायस्था निद्राप्रचलयोर्द्वयम् ॥३३॥ त्रसपञ्चाक्षपर्याप्तबादरोच्चनृरीतयः' ! तीर्थकृत्सुभगादेययशांसि दश योगिनि ||३४|| १।०।०।२।१।६।१।०।३ | १ | ० | १६ | १० | मीलिताः ४१ । इति विशेषः । मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रियजाति, नस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्त्ति और तीर्थंकर ये नौ नामकर्मकी प्रकृतियाँ हैं ||४७५ ॥ विशेषार्थ- - ऊपर उदय और उदीरणाकी अपेक्षा जिन इकतालीस प्रकृतियों का स्वामित्वभेद बतलाया गया है, उनके विषयमें यह विशेष ज्ञातव्य है कि सासादन, मिश्र, अपूर्वकरण, उपशान्तमोह और अयोगिकेवली, इन पाँच गुणस्थानों में किसी भी प्रकृतिकी उदीरणा नहीं होती है । अन्य गुणस्थानों में भी सबमें सभी की उदीरणा नहीं होती है, किन्तु मिथ्यात्वकी पहले गुणस्थान में ही उदीरणा होती है, अन्यमें नहीं । नरकायु और देवायु, इन दो कर्मों की उदीरणा चौथे गुणस्थान में ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं । तिर्यगायुकी उदीरणा पाँचवें गुणस्थानमें होती है, अन्यत्र नहीं । सातावेदनीय, असातावेदनीय, मनुष्यायु, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि; इन छह प्रकृतियोंकी उदीरणा छठे गुणस्थानमें ही संभव है, अन्यत्र नहीं । सातवें गुणस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी उदीरणा होती है । तीनों वेदोंकी उदीरणा नवें गुणस्थान में होती है । संज्वलनलोभकी उदीरणा दशवें गुणस्थानमें होती है अन्यत्र नहीं । पाँच ज्ञानावरण, पाँच अन्तराय, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा और प्रचला, इन सोलह प्रकृतियोंको उदीरणा बारहवें गुणस्थानमें होती हैं । मनुष्यगति पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थङ्कर और उच्चगोत्र, इन दश प्रकृतियोंकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान में होती है । इस कथन की अंकसंदृष्टि मूलमें दी हुई है । अब मूलसप्ततिकाकार गुणस्थानोंका आश्रय लेकर कर्मप्रकृतियोंके बन्धका निरूपण करते हैं [ मूलगा ०५१ ]' तित्थयराहारविरहियाउ अजेदि सव्वपयडीओ । मिच्छतवेदओ सासणो य उगुवीस सेसाओ ||४७६ ॥ 1. ५, ४४८-४४६ | १. टीकाप्रतौ ' नृगतयः' इति पाठः । २. सं० पञ्चसं० ५, ४४४-४४७ । १. सप्ततिका० ५६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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