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________________ [ मूलगा ० ५२] ' छायालसेस मिस्सो अविरयसम्मो तिदालपरिसेसा । वण्ण देसविरदो वरदो सगवण्ण सेसाओ |४७७॥ सप्तसिका अथ गुणस्थानेषु कर्मणां प्रकृतिव्युच्छेद-बन्धाबन्धभेदाः कथ्यन्ते - [ 'तित्थयराहार' इत्यादि । ] तीर्थङ्कराहारकद्वयरहिताः सर्वाः सप्तदशोत्तरशतप्रकृती ११७ मिथ्यात्ववेदको मिथ्यादृष्टिरर्जयति बध्नातीत्यर्थः । सासादनो जीव एकोनविंशतिं विना शेषा एकाधिकशतप्रकृतीबंध्नाति १०१ । मिश्रगुणस्थानवर्त्ती षट्चत्वा रिंशत्प्रकृतिभिर्विना शेषाश्चतुःसप्ततिं प्रकृतीबंध्नाति ७४ । भविरतसम्यग्दृष्टि त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतिभिन्यूनाः शेषाः सप्तसप्ततिं प्रकृतीध्नाति ७७ । देश विरत स्त्रिपञ्चाशत्प्रकृतिविरहिताः शेषाः सप्तषष्टिं प्रकृतीबंध्नाति ६७ । विरतः प्रमत्तो मुनिः सप्तपञ्चाशत्प्रकृतिभिर्विना त्रिपष्टिं प्रकृतिर्ब्रध्नाति६३ ॥ ४७६-४७७॥ मिथ्यात्वका वेदन करनेवाला अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव तीर्थङ्करप्रकृति और आहारकद्विक; इन तीन प्रकृतियोंके विना शेष सर्व प्रकृतियोंका उपार्जन अर्थात् बन्ध करता है । सासादनसम्यदृष्टि उन्नीसके विना शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्ध करता है। मिश्रगुणस्थानवर्ती छियालीसके विना, अविरतसम्यग्दृष्टि तेतालीसके विना, देशविरत तिरेपन के बिना ओर प्रमत्तविरत सत्तावन - के विना शेष सर्व प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ।।४७६-४७७।। Jain Education International ५२३ विशेषार्थ - प्रस्तुत ग्रन्थके दूसरे और तीसरे प्रकरण में यह बतलाया जा चुका है कि आठों कर्मों की जो १४८ उत्तरप्रकृतियाँ हैं, उनमें से बन्धयोग्य केवल १२० ही होती हैं । इसका कारण यह है कि नामकर्मकी प्रकृतियों में जो पाँच बन्धन और पाँच संघात बतलाये गये हैं, उनका बन्ध शरीरनामकर्मके बन्धका अविनाभावी है । अर्थात् जहाँ जिस शरीरका बन्ध होता है, वहाँ उस बन्धन और संघातका अवश्य बन्ध होता है । अतः बन्धप्रकृतियों में पाँच बन्धन और पाँच संघातका ग्रहण नहीं किया जाता है। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मके अवान्तर भेद यद्यपि २० होते हैं, किन्तु एक समय में किसी एक रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका ही बन्ध संभव होनेसे वर्णादिक चार सामान्य प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य मानी गई हैं। इस प्रकार वर्णादिककी सोलह और बन्धन- संघातसम्बन्धी दश प्रकृतियोंको एक सौ अड़तालीसमें से घटा देनेपर १२२ प्रकृतियाँ रह जाती हैं । तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति भी बन्धयोग्य नहीं मानी गई है, क्योंकि करण परिणामोंके द्वारा मिथ्यात्वदर्शनमोहनीयके तीन भाग करने पर ही उनकी उत्पत्ति होती है। अतएव इन दो के भी घट जानेसे शेष १२० प्रकृतियाँ ही बन्ध योग्य रह जाती हैं । उनमेंसे आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका बन्ध मिथ्यात्व में संभव न होनेसे शेष ११७ का बन्ध बतलाया गया है । मिथ्यात्वगुणस्थानके अन्तिम समय में मिथ्यात्व, नपुंसक वेद, नरकद्विक, नरकायु, एकेन्द्रिय आदि चार जातियाँ, हुंडकसंस्थान, सृपाटिका संहनन, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त; इन सोलह प्रकृतियोंकी प्रथम बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे सासादन में बन्धयोग्य २०१ रह जाती हैं । दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्यानगृद्धिन्त्रिक, स्त्रीवेद, तिर्यग्विक, तिर्यगायु, मध्यम चार संस्थान; चार संहनन; उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र इन पच्चीस प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेसे ७६ प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, किन्तु मिश्र गुणस्थान में किसी भी आयुकर्मका बन्ध नहीं होता है, अतएव मनुष्यायु और देवायु ये दो प्रकृतियाँ और भी घट जाती हैं। इस प्रकार ( १६ + २५ + २ =४६ ) छियालीसके विना शेष ७४ प्रकृतियोंका सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक माना गया है। अविरत सम्यग्दृष्टिके तैंतालीस 1. सं० पञ्चसं० ५, ४५० । १. सप्ततिका० ५७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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