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________________ ५२४ पञ्चसंग्रह (४७) के विना शेष सतहत्तर (७७) का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि इस गुणस्थानमें मनुष्यायु और देवायुका बन्ध होने लगता है, तथा तीर्थकर प्रकृतिका भी बन्ध सम्भव है। अतएव तीसरे गुणस्थानमें नहीं बँधनेवाली ४६ मेंसे तीनके और निकल जानेसे ४३ के विना शेष ७७ का चौथेमें बन्ध माना गया है। देशविरतमें ५३ के विना शेष ६७ का बन्ध कहा है। इसका कारण यह है कि चौथे गुणस्थानमें अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे जिन दश प्रकृतियोंका बन्ध होता था, उनका बन्ध पाँचवें गुणस्थानमें नहीं होता है। वे दश प्रकृतियाँ ये हैं-अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, मनुष्यद्विक, मनुष्यायु, औदारिकद्विक और वज्रवृषभनाराचसंहनन । अतएव चौथेमें बन्धके अयोग्य ४३ में १० और मिला देनेपर ५३ हो जाती हैं। बन्धयोग्य १२० मेंसे ५३ के घटा देनेपर शेष ६७ प्रकृतियोंका देशविरत बन्धक कहा गया है । प्रमत्तविरतके ५७ के विना शेष ६३का बन्ध होता है। इसका कारण यह है कि यहाँपर प्रत्याख्यानावरण कषाय-चतुष्कका भी बन्ध नहीं होता। अतः ६७ मेंसे ४ के घटा देनेपर ६३ बन्ध-योग्य; तथा ५३ में ४ बढ़ा देनेपर ५७ अबन्ध-योग्य प्रकृतियाँ छठे गुणस्थानमें बतलाई गई हैं। अब भाष्यगाथाकार उपर्युक्त अर्थका स्वयं ही निर्देश करते हैं सत्तरसधियसदं खलु मिच्छादिट्ठी दु बंधओ भणिओ। एगुत्तरसयपयडी सासणसम्मा दु बंधंति ॥४७८॥ तित्थयराहारदुगूणा मिच्छे- ११७ सासणे १०१ ३१ सप्तदशाधिशतप्रकृतीनां बन्धको मिथ्यादृष्टिभंगितः ११७ । एकोत्तरशतप्रकृतीः सासादनरुचयो १०१ [बध्नन्ति ॥४७॥ व्यु . १६ व्यु० २५ तीर्थङ्कराहारकद्वयहीना मिथ्यादृष्टौ ब० ११७ सासादने ब १०१। अ० ३ अ० १६ . मिथ्यादृष्टि जीव नियमसे सत्तरह अधिक सौ अर्थात् एक सौ सत्तरह प्रकृतियोंका बन्धक कहा गया है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एक अधिक सौ अर्थात् एक सौ एक प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं ॥४७८॥ बन्धके अयोग्य तीर्थकर और आहारकद्विक इन तीनके विना मिथ्यात्वमें बन्ध-योग्य ११७ सासादनमें बन्ध-अयोग्य १६ के विना बन्ध-योग्य १०१ प्रकृतियाँ होती हैं। इनकी अंकसंदृष्टि मूलमें दी है। चउहत्तरि सत्तत्तरि मिस्सो य असंजदो तहा चेव । सत्तट्टि देसविरदो तेसट्टि बंधगो पमत्तो दु ॥४७६।। मणुय-देवाउं विणा मिस्से तित्थयर-मणुय-देवाऊहिं सह अविरदे ७७देसे. प्रमत्ते६३ । ७४ ७१ ८१ ८५ 1. सं० पञ्चसं० ५, 'तीर्थकराहारकद्वयहीना' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २२१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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