________________
शतक
अथवा सासादनगुणस्थानमें इन्द्रिय एक, काय पाँच, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५०॥ इनकी संदृष्टि इस प्रकार है-१+५+४+१+२+१= १४।
इंदिय चउरो काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्साइदुयं एवं भयदुय एयं च एयजोगो य ॥१५॥
१।४।४।१।२।१११ एदे मिलिया १४ । १।४।४।१।२।१।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।१५।४।३।२।२।१२। वै० मि.० ६।१५। ४।२।२।। एते अन्योन्यगुणिताः ५१८४० । २८८० ॥१५१॥
अथवा इन्द्रिय एक, काय चार, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भयद्विकमें से एक और योग एक; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५१॥ इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है--१+४+४+१+२+१+१ = १४ ।
इंदिय तिण्णि य काया कोहाइचउक्क एयवेदो य । हस्सादिदुयं एयं भयजुयलं एयजोगो य ॥१५२॥
१।३।४।१।२।२।१ एदे मिलिया १४ । १।३।४।१।२।२।१ एकीकृताः १४ प्रत्ययाः । एतेषां भङ्गाः ६।२०।४।३।२।१२। वै० मि० ६॥२०॥४ २।२।। एते परस्परेण गुणिताः ३४५६० । १६२० ॥१५२॥
अथवा इन्द्रिय एक, काय तीन, क्रोधादि कषाय चार, वेद एक, हास्यादि युगल एक, भययुगल और एक योग; ये चौदह बन्ध-प्रत्यय होते हैं ॥१५२।।
इनकी अंकसंदृष्टि इस प्रकार है-१+३+४+१+२+२+२ = १४ । एदेसिं च भंगा-६।६।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगणिदा=१०३६८
६।६।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा= ५७६ ६।१५।४।३।२।२।१२ एए अण्णोण्णगणिदा= ५१८४० ६।१५।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगणिदा =२८८० ६।२०।४।३।२।१२ एए अण्णोण्णगुणिदा=३४५६०
६।२०।४।२।२।१ एए अण्णोण्णगुणिदा = १९२० एए सव्वे मेलिए
=१०२१४४ __एते सर्वे पड राशयो मीलिताः १०२ १४४ एते मध्यमचतुर्दशप्रत्ययानामुत्तरोत्तरप्रत्ययविकल्पा भवन्ति ।
चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी इन तीनों प्रकारोंके उक्त दोनों विवक्षाओंसे भङ्ग इस प्रकार उत्पन्न होते हैंप्रथम प्रकार
_६।६।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर १०३६८ भङ्ग होते हैं । ६६।४।२।२।१ इनका परस्पर गणा करने पर ५७६ भङ्ग होते हैं।
६।१५।४।३।२।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर ५१८४० भङ्ग होते हैं। द्वितीय प्रकार
६।१।४।२।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर २५८० भङ्ग होते
६।२०।४।३।२।१२ इनका परस्पर गुणा करने पर ३४५६० भङ्ग होते हैं। असार ६।२०४।२।२।१ इनका परस्पर गुणा करने पर १६२० भङ्ग होते हैं । इस प्रकार सासादनगुणस्थानमें चौदह बन्ध-प्रत्यय-सम्बन्धी भङ्गोंका जोड़ १०२१४४ होता है।
maritheliho incide ither
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org