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________________ पश्वसंग्रह यहाँ पर दुर्भग, दुःस्वर और अनादेया, इन तीन प्रकृतियोंका तीर्थङ्करप्रकृति और सम्यक्त्वके साथ विरोध होनेसे बन्ध नहीं होता है; किन्तु सुभग, सुस्वर और आदेयका ही बन्ध होता है, इसलिए शेष तीन युगलोंके परस्पर गुणित करने पर (२x२x =८) आठ भङ्ग होते हैं । 'जह तीसं तह चेव य ऊणत्तीसं तु जाण पढमं तु । तित्थयरं वजित्ता अविरदसम्मो दु बंधेइ॥८१॥ एत्थ अट्ठ भंगा ८ पुणरुत्ता, इदि ण गहिया । यथा त्रिंशत्कं बन्धस्थानं तीर्थकरत्वं वर्जयित्वा प्रथममेकोनत्रिंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ अविरतसम्यग्दृष्टिदेवो नारको वा बध्नातीति जानीहि ॥८॥ अत्राष्टौ भङ्गाः ८ पुनरुक्तत्वान्न गृह्यन्ते । जिस प्रकार तीसप्रकृतिक बन्धस्थान बतलाया गया है, उसी प्रकार प्रथम उनतीस प्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । इसमें केवल तीर्थङ्करप्रकृतिको छोड़ देते हैं। इस स्थानको अविरतसम्यग्दृष्टि जीव बाँधता है ॥८॥ यहाँ पर उपर्युक्त आठ भंग होते हैं, जो कि पुनरुक्त होनेसे ग्रहण नहीं किये गये हैं। जह पढमं उणतीसं तह चेव य विदियऊणतीसं तु। णवरि विसेसो सुस्सर सुभगादेजजुयलाणमेयदरं ॥२॥ हुंडमसंपत्तं पिवा वजिय सेसाणमेक्कयरयं च । विहायगइजुयलमेयदरं सासणसम्मा दु बंधंति ॥८३॥ २।२।२।२।२।२।५।५।२ भण्णोण्णगुणिया भंगा ३२०० । एए तइयउणतीसपविठ्ठा ण गहिया । यथा प्रथममेकोनत्रिंशत्कं तथा तेनैव प्रकारेण द्वितीयमेकोन त्रिंशत्कं नामप्रकृतिबन्धस्थानं २६ भवति । नवरिः किञ्चिविशेषः, किन्तु सुस्वर-सुभगादेययुगलानां मध्ये एकतरं १।११। हुण्डकसंस्थाना ने द्वे २ अन्तिमे वर्जयित्वा शेषाणां पञ्चानां संस्थानानां पञ्चानां संहननानां चैकतरं ॥ विहायोगतियुग्मस्यकतरं १ इति विशेषः । मनुष्यगतिसंयुक्तोकोनत्रिंशत्कं स्थानं द्वितीयं २६ सासादनसम्यग्दृष्टयो बध्नन्ति ॥८२-८३॥ स्थिर-शुभ-यश:-सुस्वर - सुभगादेय - प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगतियुगलान्स्यसंस्थान-संहननवर्जित-पञ्चसंस्थान-पञ्चसंहननानि शशशशशरा४।५। ५ अन्योन्यगुणिता भङ्गाः ३२००। एते भङ्गाः वक्ष्यमाणतृतीयनवविंशतिं प्रति प्रविष्टा इति न गृहीता न गृह्यन्ते । जिस प्रकार प्रथम उनतीसप्रकृतिक स्थान कहा गया है, उसी प्रकार द्वितीय उनतीसप्रकृतिक स्थान भी जानना चाहिए । विशेषता केवल यह है कि सुस्वर, सुभग और आदेय, इन तीन युगलोंमेंसे कोई एक एक, तथा हुंडक संस्थान, और सृपाटिका संहननको छोड़कर शेषमेंसे कोई एक एक और विहायोगति-युगलमेंसे कोई एक प्रकृति-संयुक्त द्वितीय उनतीस प्रकृतिकस्थानको सासादनसम्यग्दृष्टि जीव बाँधते हैं ॥८२-८३॥ यहाँ पर स्थिरादि छह युगल, पाँच संस्थान, पाँच संहनन और विहायोगति-द्विकके परस्पर गुणित करनेपर (२x२x२x२x२x२x५४५४२= ) ३२०० भंग होते हैं । ये भंग तृतीय उनतीसप्रकृतिक स्थानके अन्तर्गत हैं, इससे उनका ग्रहण नहीं किया गया है। 1. सं० पञ्चसं० ५,६४ | 2.५,६५-६६ । नब पिच, ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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