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________________ जोवसमास सम्यग्दृष्टि जोव मर कर कहाँ-कहाँ उत्पन्न नहीं होता 'छसु हेट्टिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु । वारस मिच्छावादे सम्माइट्ठिस्स णत्थि उववादो ॥१३॥ प्रथम पृथ्वीके विना अधस्तन छहों पृथिवियोमें; ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवोंमें, सर्वप्रकारकी स्त्रियोंमें अर्थात् तिर्यंचनी, मनुष्यनी और देवियोंमें, तथा बारह मिथ्यावादमें अर्थात् जिनमें केवल एक मिथ्यात्व हो गुणस्थान होता है, ऐसे एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और असंज्ञिपञ्चेन्द्रियसम्बन्धी तियश्चोंके बारह जीवसमासोंमें सम्यग्दृष्टि जीवका उत्पाद नहीं है, अर्थात् वह मरकर इनमें उत्पन्न नहीं होता है ।।१६३।। एक जीवके कौन-कौन सी मार्गणाएँ एक साथ नहीं होती हैं मणपज्जव परिहारो उवसमसम्मत्त दोण्णि आहारा । एदेसु एक्कपयदे णत्थि त्ति असेसयं जाणे ॥१६४॥ मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, प्रथमोपशमसम्यक्त्व और दोनों आहारक, अर्थात् आहारकशरीर और आहारकअंगोपांग; इन चारोंमेंसे किसी एकके होने पर शेष तीन मार्गणाएँ नहीं होती, ऐसा जानना चाहिए ॥१६४।। संयमोंका गुणस्थानों में निरूपण जा सामाइय छेदोऽणियट्टि परिहारमप्पमत्तो त्ति । सुहुमो सुहुमसराओ उवसंताई जहक्खाय ॥१६॥ • छठे गुणस्थानसे लेकर नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होता है । अप्रमत्तान्त अर्थात् छठे और सातवें गुणस्थानमें परिहारविशुद्धिसंयम होता है। सूक्ष्मसाम्परायसंयम सूक्ष्मसरागनामक दशवें गुणस्थानोंमें होता है और यथाख्यातसंयम उपशान्तकधायादि अन्तिम चार गुणस्थानमें होता है ॥१६॥ समुद्धातके भेद "वेयण कसाय वेउव्विय मारणंतिओ समुग्घाओ। तेजाऽऽहारो छट्ठो सत्तमओ केवलीणं च ॥१६॥ १ वेदनासमुद्धात २ कषायसमुद्धात ३ वैक्रियिकसमुद्धात ४ मारणान्तिकसमुद्धात, ५ तैजससमुद्रात, छट्टा आहारकसमुद्धात और सातवाँ केवलियोंके होनेवाला केवलिसमुद्धात ये सात प्रकारके समुद्धात होते हैं। (वेदनादि कारणोंसे मूल शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्धात कहते हैं ! )॥१६॥ केवलिसमुद्धातका निरूपण पढमे दंडं कुणइ य विदिए य कवाडयं तहा समए । तइए पयरं चेव य चउत्थए लोयपूरणयं ॥१७॥ 1. सं० पञ्चसं० १,२६७ । 2. १, ३४० । 3. १, २४४ । 4. १, ३३७ । 5.१,३२६ । . १. ध० भा० १ पृ० २०६, गा० १३३ । परं तनोत्तरार्धे 'णेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी दु जो जीवो' इति पाठः । गो० जी० १२७. तत्रायं पाठः-हेटिठमछप्पुढवीणं जोइसि-वण-भवण-सव्वइत्थीण । पुग्णिदरे ण हि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे ॥ २. गो०जी० ७२८। ३. ध० १, ३, २ गो० जी० ६६६ । ॐ प्रतिषु 'तेजा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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