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________________ ४० पश्चसंग्रह देवोंमें लेश्याओंका निरूपण 'तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दुण्हं च तेरसण्हं च । एदो य चउदसण्हं लेसाण समासओ मुणह' ॥१८॥ तेऊ तेऊ तह तेउ-पम्म पम्मा य पम्म-सुक्का य । सुक्का य परमसुक्का लेसा भवणाइदेवाणं ॥१८॥ भवनादि तीन देवोंके अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंके जघन्य तेजोलेश्या होती है। सौधर्म और ईशान इन दो कल्पवासी देवोंके मध्यम तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार और महेन्द्र इन दो कल्पवासी देवोंके उत्कृष्ट तेजोलेश्या और जघन्य पद्मलेश्या होती है। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र इन छह कल्पवासी देवोंके मध्यम पद्मलेश्या होती है । शतार, सहस्रार इन दो कल्पवासी देवोंके उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है । आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पवासी देवोंके तथा नव प्रैवेयकवासी कल्पातीत देवोंके, इन तेरहोंके मध्यम शुक्ललेश्या होती है। इससे ऊपर नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इन चौदह कल्पातीत देवोंके परम अर्थात उत्कृष्ट शुक्ललेश्या होती है ॥१८८-१८६।। पज्जत्तयजीवाणं सरीर-लेसा हवंति छब्भेया। सुक्का काऊ य तहा अपज्जत्ताणं तु बोहव्वा ॥१६॥ पर्याप्तक जीवोंके शरीरकी लेश्या अर्थात् द्रव्य लेश्या छहों होती हैं। किन्तु अपर्याप्तकोंके शरीरलेश्या शुक्ल और कापोत जानना चाहिए ॥१०॥ विग्गहगइमावण्णा जीवाणं दव्वओ य सुका य । सरीरम्हि असंगहिए काऊ तह अपजत्तकाले य ।।१६१॥ विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारों गतिके जीवोंके शरीरके ग्रहण नहीं करने अर्थात् जन्म नहीं लेनेतक द्रव्यसे शुक्ललेश्या होती है। पुनः जन्म लेनेके पश्चात् शरीरपर्याप्तिके पूर्ण नहीं होने तक अपर्याप्तकालमें कापोतलेश्या होती है ।।१६।। लेश्या-जनित भाडोका दृष्टान्त-द्वारा निरूपण 'णिम्मूल खंध साहा गुंछा चुणिऊण • कोइ पडिदाई। जह एदेसिं भावा तह वि य लेसा मुणेयव्वा ॥१२॥ जिस प्रकार कोई पुरुष किसी वृक्षके फलोंको जड़-मूलसे उखाड़कर, कोई स्कन्धले काटकर, कोई गुच्छोंको तोड़कर, कोई फलोंको चुनकर और कोई गिरे हुए फलोंको बीन करके खाना चाहे, तो उनके भाव जैसे उत्तरोत्तर विशुद्ध हैं, उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओंके भाव भी क्रमशः उत्तरोत्तर विशुद्ध चाहिए ।।१६२।। 1. १, २६६-२७१ । 2. १, २५३-२५६ । १. १, २५७ । 4. १, २६४ । १. गो० जी० ५३३ । जीवस० गा० ७३, परं तत्र 'चतुर्थचरणे 'सक्कादिविमाणवासीणं' इति पाठः। २. गो० जी० ५३४ । तत्र चतुर्थचरणे भवणतियाऽपुण्णगे असुहा इति पाठः। ३. गो. जी. ५०७। उत्तरार्धे पाठभेटः । द ब चुण्णिऊण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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