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________________ पञ्चसंग्रह विवरं पंचमसमए जोई मंथाणयं तदो छ? । सत्तमए य कवाडं संवरइ तदोऽट्ठमे दंडं ॥१८॥ समुद्भातगतकेवली भगवान् प्रथम समयमें दंडरूप समुद्भात करते हैं। द्वितीय समयमें कपाटरूप समुद्धात करते हैं। तृतीय समयमें प्रतररूप और चौथे समयमें लोकपूरण समुद्धात करते हैं। पाँचवें समयमें वे सयोगिजिन लोकके विवर-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण (संकोच) करते हैं। पुनः छठे समयमें मन्थान-(प्रतर-) गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं। सातवें समयमें कपाट-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं और आठवें समयमें दंडसमुद्धात-गत आत्मप्रदेशोंका संवरण करते हैं ।।१६७-१६८। केवलिसमुद्धातमें काययोगोंका निरूपण 'दंडदुगे ओरालं कवाडजुगले य पयरसंवरणे । मिस्सोरालं भणियं कम्मइओ सेस तत्थ अणहारी ॥१६॥ केवलिसमुद्धातके उक्त आठों समयोंमेंसे दण्ड-द्विक अर्थात् पहले और आठवें समयके दोनों दण्डसमुद्धातोंमें औदारिककाययोग होता है। कपाट-युगलमें अर्थात् विस्तार और संवरणगत दोनों कपाटसमुद्धातोंमें तथा संवरण-गत प्रतरसमुद्धातमें यानी दूसरे, छठे और सातवें समयमें औदारिकमिश्रकाययोग होता है, ऐसा परमागममें कहा गया है। शेष समयोंमें अर्थात् तीसरे, चौथे और पांचवें समयमें कार्मणकाययोग होता है और उस समय केवली भगवान् अनाहारक रहते हैं ।।१६६। केवलिसमुद्धातका नियम 'छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जेसिं केवलं णाणं । ते णियमा समुग्घायं सेसेसु हवंति भयणिज्जा ॥२०॥ जिनके छह मास आयुके शेष रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है, वे केवली नियमसे समदात करते हैं। शेष केवलियोंमें समुद्धात भजनीय है, अर्थात् कोई करते भी हैं और कोई नहीं भी करते ॥२००॥ सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतकी प्राप्तिका नियम चित्तारि वि छेत्ताई आउयबंधेण होइ सम्मत्तं । अणुवय-महव्वयाई ण लहइ देवाउअं मोत्तु ॥२०१॥ जीव चारों ही क्षेत्रों (गतियों) की आयुका बन्ध होनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु अणुव्रत और महावत देवायुको छोड़कर शेष आयुका बन्ध होने पर प्राप्त नहीं कर सकता ।।२०१॥ दर्शनमोहनीयका क्षय कौन करता है 'दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु । णियमा मणुसगदीए णिट्ठवगो चावि सव्वत्थ ॥२०२॥ 1. सं पञ्चसं० १, ३२५ । 2. १, ३२७ । 3. १,३०१ । 4. १, २६४ । १. मूलारा २१०५। ध० भा० १ पृ० ३०३ गा० १६७ । २. ध० भा० १ पृ० ३२६ गा० १६६ । गो० जी० ६५२, गो० क० ३३४ । ३. क. पा. २ गा० १६७ गो०जी० ६४७ । 8 ब खेत्ताई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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