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जीवसमास मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुआ कर्मभूमियाँ मनुष्य ही नियमसे दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रस्थापक होता है अर्थात् प्रारम्भ करता है। किन्तु निष्ठापक सर्वत्र होता है। अर्थात् पूर्व-बद्ध आयुके वशसे किसी भी गतिमें उत्पन्न होकर उसकी निष्ठापना (पूर्णता) कर सकता है ।।२०२॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टिके संसार-वासका नियम--
'खवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदो अिण्णे ।
णादिक्कदि तिण्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि ॥२०॥ जो मनुष्य जिस भवमें दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापन करता है, वह दर्शनमोहके क्षीण होने पर नियमसे उससे अन्य तीन भवोंका अतिक्रमण नहीं करता है। अर्थात् दर्शनमोहके क्षीण हो जानेपर तीन भवमें नियमसे मुक्त हो जाता है ॥२०३॥ दर्शमोहनीयका उपशम कौन करता है
दसणमोह-उवसामगो दु चउसु वि गईसु बोहव्यो।
पंचिंदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥२०४॥ दर्शनमोहका उपशम करनेवाला जीव चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । किन्तु वह नियमसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है। अर्थात् चारों ही गतिके संज्ञी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं ।।२०४।। विरह (अन्तर) कालका नियम
सम्मत्ते सन दिणा विरदाविरदे य चउदसा होति ।
विरदेसु य पण्णरसं विरहियकालो य बोहव्वो ॥२०॥ उपशमसम्यक्त्वका विरहकाल सात दिन, उपशमसम्यक्त्व-सहित विरताविरतका विरहकाल चौदह दिन और उपशमसम्यक्त्व-सहित विरत अर्थात् प्रमत्त-अप्रमत्तसंयतका विरहकाल पन्द्रह दिन जानना चाहिए ॥२०॥ नारिकयोंके विरहकालका नियम
पणयालीस मुहुत्ता पक्खो मासो य विण्णि चउ मासा । छम्मास वरिसमेयं च अंतरं होइ पुढवीणं ॥२०६॥ ..
_ जीवसमासो समत्तो रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंमें नारकियोंकी उत्पत्तिका अन्तरकाल क्रमशः पैंतालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और एक वर्ष होता है ।।२०६।।
इस प्रकार जीवसमास नामक प्रथम अधिकार समाप्त हुआ ।
1. सं० पञ्चसं० १, २६५। 2. १, २६६ । 3. १, ३३६ । १. क. पा०, गा० ११३ । २. कपा० गा० ६५। ३. गो० जी० १४४ 'परं तत्र प्रथमचरणे
पढमुवसमसहिदाए' इति पाठः । +द अण्णो ।
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