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________________ ४४० पञ्चसंग्रह एवं मिश्रगुणस्थाने सम्यग्मिथ्यात्वसहिता नवोदया: ।। असंयतादिषु चतुषु यत्रोपशम-ज्ञायिकसम्यक्त्वे तु न भवतस्तत्र सम्यक्त्वप्रकृत्युदयो वेदकसम्यक्त्वेन सहान्यो द्वितीयोदयः, तेन कारणेन असंयतादिषु चतुषु द्वौ द्वौ उदयौ एतौ। असंयते हा देशेदा। प्रमत्ते ७।६ अप्रमत्ते ७१६ । पुनरपूर्वकरणे सम्यक्त्वप्रकृत्युदयो नास्ति । ततस्तत्र वेदकसम्यक्त्वाभावादेको मोहोदयः ६ । इस प्रकार सासादनादि गुणस्थानोंमें जो मोहप्रकृतियोंका उदय बतलाया गया है, उनमेंसे मिश्रगुणस्थानमें उदय होनेवाली आठप्रकृतियों में सम्यग्मिथ्यात्वके संयुक्त कर देनेपर नौ-प्रकृतियोंका उदय होता है । वेदकसम्यक्त्वसे सहित जो चतुर्थादि चारगुणस्थान हैं, उनमें सम्यक्त्वप्रकृतिका भी उदय होता है । अतएव उनमें एक-एक उदयस्थान और भी जानना चाहिए ॥३०७।। अब आगे इसी कथनका स्पष्टीकरण करते हैं इस प्रकार मिश्रगुणस्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वसहित नौप्रकृतियोंका उदय होता है। असंयतादि चारगुणस्थानोंमें जहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता है, वहाँपर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयमें वेदकसम्यक्त्वके साथ पूर्वमें बतलाया गया अन्य भी दूसरा उदयस्थान होता है। अतएव अधिरतादि चारगुणस्थानोंमें दो-दो उदयस्थान होते हैं। अर्थात् अविरतमें नौ और आठप्रकृतिक दो उदयस्थान, देशविरतमें आठ और सातप्रकृतिक दो उदयस्थान; प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरतमें सात और छहप्रकृतिक दो-दो उदय स्थान होते हैं। किन्तु अपूर्वकरणगुणस्थानमें सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय नहीं होता है, इसलिए वहाँपर वेदकसम्यक्त्वका अभाव होनेसे छहप्रकृतिक एक ही उदय स्थान होता है। 'ते सव्वे भयरहिया दुगुंछहीणा दु उभयहीणा दु। अण्णे वि य एदेसिं एकेकस्सोवरि तिण्णि ॥३०८।। मिच्छे । ८८ सासणे ८८ मिस्से ८८ असंजए ८1८ ७७ देसे ७७ ६।६ पमत्ते ६६ ५।५ अपमत्ते ६।६ ५।५ अपुग्वे वेदयो गस्थि तेण एगो ५।५ अणियटिए २।३ । सुहुमे ।। ते सर्वे दश-नवादयः उदयाः १० भयरहिताः नव दुगुंछार हिता वा नव है । तु पुनः उभयहीना भय-जुगुप्साद्वयरहिता अष्टौ ८ । ततोऽन्येऽप्युदयास्तेषामेकैकस्योपरि त्रयः उदयाः ॥३०८॥ तत्र मिथ्यादृष्टौ ह।। ८८ सासादने ८८ मिटे । असंयते ८८ । ७७ । देशे ७१७ । ६।६ । प्रमत्ते ६।६। ५।५। अप्रमत्ते ६।६। ५।५ । अपूर्वकरणे वेदकसम्यक्त्वस्योदयो नास्ति, तत एकं यन्त्रम् ५५ । अनिवृत्तिकरणे २११ । सूचमसाम्पराये संज्वलनलोभोदयः १ । । ऊपर जो दश, नौ आदिक जितने भी सर्व उदयस्थान बतलाये हैं, वे भय-रहित भी होते हैं, जुगुप्सा-रहित भी होते हैं और दोनोंसे रहित भी होते हैं। इसलिए ऊपर कहे गये एक-एक स्थानके ऊपर ये तीन-तीन उदयस्थान और भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥३०८।। 1. सं० पञ्चसं०.५, ३३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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