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________________ सप्ततिका अनन्तानुबन्धिविसंयोजितवेदकसम्यग्दृष्टौ मिथ्यात्व कर्मोदयात् मिथ्यारष्टिगुणस्थानं प्राप्त आवलिमात्रकालं अनन्तानुबन्ध्युदयो नास्ति, अतो मोहप्रकृतीनां दशकानामुदयः १० अनन्तानुबन्धिरहितो नवप्रकृतीनामुदयो ६ मिथ्यादृष्टौ प्रथमे गुणस्थाने भवेत् ॥३०५।। मिथ्यादृष्टौ उदयौ द्वौ १०।। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके सम्यग्दर्शनको प्राप्त हुआ जीव यदि मिथ्यात्व कर्मके उदयसे मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो जावे, तो एक आवलीप्रमाण काल तक उसके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय सम्भव नहीं है, अतएव मिथ्यात्वगुणस्थानमें नौप्रकृतिक उदयस्थान भी होता है ॥३०॥ इस प्रकार मिथ्यात्वगुणस्थानमें दश और नौप्रकृतिक दो उदयस्थान होते हैं। अब सासादनादि गुणस्थानों में मोहकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण करते हैं 'मिच्छत्तऽण कोहाई विदि-तदिएहिं ते दु दसरहिया । सासणसम्माई खलु एगे दुग एग तीसु णायव्वा ।।३०६॥ सासणादिसु ८1८७।६।६।६। ते मोहप्रकृत्युदयाः दश १० मिथ्यात्वप्रकृतिरहिता एकस्मिन् सासादने नवोदयाः । एते 'दुग' इति द्वयोर्मिश्राविरतयोः अजन्तानुबन्धिरहिताः अष्टौ । एते 'एग' इति एकस्मिन् देशविरते पञ्चमे अप्रत्याख्यानरहिताः सप्तोदयाः ७ ! एते त्रिषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणेषु तृतीयप्रत्याख्यानकपायरहिताः पडदयाः ६ ज्ञातव्या भवन्ति ॥३०६॥ सासादनादिषु ८८७।६।६।६। ऊपर जो दशप्रकृतिक उदयस्थान बतलाया गया है, उसमेंसे मिथ्यात्वके विना शेष नौ प्रकृतियोंका उदय सासादनगुणस्थानमें होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधादि कषायके विना शेष आठ प्रकृतियोंका उदय मिश्र और अविरतगुणस्थानमें होता है। दूसरी अप्रत्याख्यानकषायके विना शेष सात प्रकृतियोंका उदय देशविरतगुणस्थानमें होता है। तीसरी प्रत्याख्यानकषायके विना शेष छह प्रकृतियोंका उदय तीन गुणस्थानोंमें अर्थात् प्रमत्त, अप्रमत्त और अपूर्वकरणमें जानना चाहिए ॥३०६॥ सासादनादि गुणस्थानोंमें क्रमशः ६, ८, ८, ७, ६, ६, ६ प्रकृतियोंका उदय होता है। इदि मोहुदया मिस्से सम्मामिच्छेण संजुया होति । अवरे सम्मत्तजुया वेदयसम्मत्तसहिया जे ॥३०७॥ __ एवं मिस्से सम्मामिच्छत्तसहिया है। असंजदादिसु वउसु जत्थ उवसम-खाइयसम्मत्ताणि ण होंति तत्थ सम्मत्तोदये वेदयसम्मत्तेण सह अण्णो वि विदिओ उदओ। तेण अविरयादिसु चउसु दो दो उदया। एदे ७६७।६। अपुग्वे पुण सम्मत्तोदो त्थि, तेण तत्थ वेदगाभावादो एगो चेव ६ । हत्यमुना प्रकारेण मोहप्रकृत्युदया अष्टौ सम्यग्मिध्यात्वेन संयुक्ता मिश्रगुणस्थाने नव मोहोदया भवन्ति । अपरे ये मोहोदया वेदकसम्यक्त्वसहितास्ते सम्यक्त्वप्रकृतिसंयुक्ताः। सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिर्मिश्रे उदेति, सम्यक्त्वप्रकृतिर्वेदकसम्यग्दृष्टावेवासंयतादिचतुषु उदयं याति । नतूपशमक-क्षायिकस्योदयः ॥३०७॥ 1. सं० पञ्चसं०५,३३३ । १.५, 'सासनादिषु' 'इत्यादिगाभागः । (पृ० २०२)। 3.५, ३३४ । 4.५, 'सम्यमिथ्यात्व' इत्यादिगद्यभागः (पृ० २२०)। 5.५, ३३५-३३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001937
Book TitlePanchsangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages872
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size21 MB
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